पृष्ठम्:बीजगणितम्.pdf/१११

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बीजगणिते - "दृढाः' इत्यन्वर्थसंज्ञा | पुनर्नापवर्तन्ते न श्रीयन्त इत्यर्थः” इति बुद्धिविलासिन्यां श्रीगणेशदैवज्ञैरप्युक्त एवायमर्थः | भाज्यहारक्षे- पागमपवर्तन संभवे सत्यवश्यमपवर्त्या एव । अन्यथा कुट्टको न संभवतीति सिद्धम् | उद्देशस्य खिलत्वज्ञापनार्थमाह-येनेति । येनाङ्केन भाज्यहारौ छिनावपवर्तितो तेनेवाङ्केन क्षेपश्चेत्र विभ एतदुद्दिष्टं पृच्छकेन पृष्टं दुष्टमेव । अयं भाज्यो येन केनापि गुणितस्तेन क्षेपेण युतोनस्तेन हरेरण भक्तः सन् कदा- चिदपि निःशेषो न भवेदित्यर्थः ॥ २५ ॥ 4 कुट्टक ।

इस भांति सामान्य बीजक्रिया के उपयोगी वनर्णषविंध, खषड्विध,

. वर्णषड्विध और करणीषड्विध कहकर अब अनेकवर्ण समीकरण के अर्थ कुक का निरूपण करते हैं - उद्दिष्टराशि जिससे गुणाच्या उद्दिष्ट क्षेप के जोड़ने अथवा घटाने से और उद्दिष्ट भाजक के भाग देने . से निःशेष हो उस गुणक कुट्टक' यह संज्ञा की है। यहां पर जो राशि गुणा जाता है उसे भाज्य, जो जोड़ा अथवा घटाया जाता है उसे क्षेप, जिसका भांग दिया जाता है उसे हार और जो लब्धि आती है उसे लब्धि कहते हैं । ये संपूर्ण संज्ञा अन्वर्थ अर्थात् यथार्थ हैं । ६ अब कुक के ज्ञान के लिये पहिले क्या करना चाहिये सो कहते हैं- कुट्टक के जानने के लिये पहिले भाज्य, हार और क्षेपमें किसी एक ही समान अङ्कका अपवर्तन दो, (अपवर्तन वह कहलाता है कि जिसका पूर। पूरा भाग लगि जावे ) और वह अपवर्तन की संख्या एक भिन्न न है क्योंकि एक वा भिन्न अङ्क का सर्वत्र अपवर्तन लग सकता है | इसभांति अपवर्तन देने से भाज्य और हार व्यपवर्तित हो परंतु क्षेप न अपवर्तित हो तो वह उदाहरण दुष्ट अर्थात् अशुद्ध होगा | -