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पृष्ठम्:धम्मपद (पाली-संस्कृतम्-हिन्दी).djvu/९६

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१९ ॥ दुखवणे [ ४५ अनुवाद--झमा है परम तप, और तितिक्षा सुख निर्वाणको पर्स (=उत्सस ) थतकाते हैं, दूसरेका धात फरनेधाका, दूसरे को भीठित करनेवाला अन्ननित (=इत्यागी ), असण (–संन्यासी) नहीं हो सकता। निन्दा न करना, बात न करना, अतिमोक्ष (निखनियम, आचारनियस ) द्वारा अपनेको सुरक्षित रखना, परिमाण जानकर भोजन करना, एकान्तमें सोना-बैठना (=शयनासन=निवासगृह), चिसको योगमैं छगन, यह अबोंकी शिक्षा है । ( उदास भिक्षु ) १८६-१ कहापणवस्सेन तिन्ति कामेसु विक्षति । अप्पस्सादा दुखा कामा इति विज्ञाय पण्डितो ॥८॥ (न कार्षापणवर्षेण तृप्तिः कामेषु विद्यते । अल्पास्वादुः कामा इति विशय पण्डितः ८ ) १८७-अपि हिन्वेषु कामेसु रतिं सो नाधिगच्छति । तण्हवख्यरतो होति सम्मासम्बुद्धसावको ॥|६॥ (अपि दिव्येषु कामेषु रतिं स नाधिगच्छति । तृष्णाक्षयरतो भवति सम्यसंखुवुश्रावकः ॥२। ) अनुवाद--यदि रूपयों(=+इषण )की वर्षा हो, तो भी (मनुष्य ) कामे(कुंभोग के दृप्ति नहीं हो सकती । ( सभी ) कास (=ओोग ) अल्फ्स्वाद्(और ) दु:खद हैं, ऐसा जानकर पबित दैवतालके भागोमें भी रति नहीं करता) और सभ्थसंबद्ध (=खुद )का वक (=अनुयायी ) सुधशा को नाश करनेमें लगता है ।