पृष्ठम्:धम्मपद (पाली-संस्कृतम्-हिन्दी).djvu/६९

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५८] धम्मपदं १११ जैतवन कोक (छत्तैका शिकारी ) १२१–यो अप्पदुवम्स नरस्स दुस्सति शुद्धस्स पोसस्स अनझणस्स । । तमेव बालं । पच्वेति पापं, सुरु मो रजो पबाितं 'व खित ॥१०॥ (थोऽलङथाय नराय दुष्यति शुद्धय पुरुषायऽतङ्गणाय । तमेव बालं प्रत्येति पापं, स्मो रजः प्रतिवातमिव क्षिप्तम् ॥१०॥ अनुवाद--ओ परहित शुब निसंछ पुरुषको दोष लगाता है, बसी अज्ञको ( उसका ) पाप शेटकर लगता , ( जैसे कि ) सूक्ष्म धूलिको हावाके आनेके रूख फंकनेसे ( यह क्रनेवाले पर पड़ती है )। ( माणिकारकुपग ) तिस्स ( पैर ) १२६-भमेके उप्पजन्ति निरयं पापकम्मिनो । स्मगं सुगतिनो यन्ति, परिनिब्बन्ति अनास्मा ॥११॥ (गर्भमक उत्पद्यन्ते, निरयं पापकर्मिणः । स्वर्ग' सुगतयो यान्ति, परिनिर्वान्त्यनास्रवाः ॥ ११ ॥ अनुवाद--—कोही (पुरुष) गर्ममें उत्पन्न होते हैं, ( कोई ) पाप- कर्ता नरफमें ( जाते हैं ), (कई ) मुगतिवाळे (पुरुष) स्वर्गको जाते हैं, (और चित्तके ) मकौमै रहित (पुरुष) निर्याणकं प्राप्त होते हैं।