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पृष्ठम्:धम्मपद (पाली-संस्कृतम्-हिन्दी).djvu/१३८

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२०१६ ] अगयग्गों [ २७ अनुवाद--वनको काटो, भृक्षको मत, उनले भय उपख होता है भिक्षुओं !, वन और को काटकर निर्माणको प्राप्त हो आओ। जयतक अणुमात्र भी स्कीमेंqरुपकी कामना क्षखंडित रहती है, तबतक दूध पीनेवाला बछडा जैसे आतामें आयझ रहता है, ( वैसे ही वह पुरुष चंघा रहता है )। सुवर्णकार ( धेर) २८५-उच्छिन्द सिनेहमतनो कुमुदं सारदिकं 'व पाणिना। सन्तिमगमेव चूहूय निब्वानं सुगतेन देसितं ॥१३॥ (उच्छिन्धि स्नेहमात्मनः कुमुदं शरविकमिव पाणिना । शान्तिमार्गमेव हय निर्वाणं सुगतेन दंशितम् ॥१शl ) अनुवाद --हाथसै शर( )ले कुखुद्दकी भाँति, आत्मस्तैको वच्छिव कर डालो, सुगात (=शुद्द )र उपविष्ट ( इस ) शान्तिसागै निर्माणका आश्रय लो। जतुवन (मश्वथनीं बषिक् ) २८६-ईंध बसं वसिस्सामि इश्व हेमन्तगिम्हम् । इति बालो विचिन्तेति अन्तरायं न बुल्झति ॥१४॥ (इइ वर्षाख वसिष्यामि इह हैभन्तीष्मयोः । इति बालो विचिन्तयति, अन्तरायं न मुच्यते ।१ ) अनुवाद---यहाँ वर्षमें बचेंग, यहाँ हैसन्त और भीष्ममैं ( वर्तृणा ) --भूय इस प्रकार सोचता है, (और ) अन्तराय (=विन) को नहीं खुलता ।