प्रकरण ३ श्लो०१६ [ २३३ जन्य और नित्य माना है तैसे ही अज्ञान निवृत्ति भी नित्य है, क्योंकि कल्पित पदार्थ की 'निवृत्ति सिद्धांत में अधिष्ठान रूप ही मानी है और अधिष्ठानत्व के मिथ्या होने पर भी अधिष्ठान का स्वरूप नित्य है। इसलिये नष्ट हुए अज्ञान की फिर उत्पत्ति नहीं होती इस तात्पर्य से आचार्यो ने यहां मोह बाध को ध्वंस रूप कहा है और अधिष्ठान से मोह बाध को अपृथक् कहा है। (अभाव मात्र प्रथा बाध बुद्धिश्च) और अत्यन्ताभाव मात्र रूप भी बाधबुद्धि नहीं, क्योंकि बाधबुद्धि यह सर्प नहीं किंतु यह रज्जु ही है इस प्रकार अधिष्ठान को भी ग्रहण करती है, (अथवा अभावोपि अधिष्ठान रूपः स्यात्) अथवा बाध बुद्धि श्रत्यन्ता भाव रूप रही परन्तु सिद्धांत में अभाव भी अधिष्ठान रूप ही है पदार्थान्तर नहीं । इसी तात्पर्य से सिद्धांत में एक मात्र अत्यन्ताभाव को माना भी है। इससे भी अज्ञान के फिर हो जाने की शंका नहीं हो सकती ॥१५॥ काम कर्म, अविद्या ही जन्म के कारण हैं। उनके अधिष्ठान के ज्ञान से अज्ञान की निवृत्ति कही, अब कम की निवृत्ति कहतें हैं । इसीसे ब्रह्मवेत्ता को जन्म मरणका भय नहीं है। कर्म जातं समारब्धदेहेतरत्सत्वरंभस्मतामेति बोधाग्निा । श्लिष्यते नेष्यताप्येष बोधोज्ज्वलः कमणा जीवनेनेवपद्मच्छदः ।।१६।। = ज्ञानरूप अग् िसे प्रारब्ध कर्म से भिन्न कर्म शीघ्र ही भस्म होते हैं और आगामी कम से भी बोधवान ज्ञानी
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