२३४ ] स्वाराज्य सिद्धि लेपायमान नहीं होता, जैसे जल में रहकर कमलपत्र जल से लेपायमान नहीं होता ॥१६॥ (बोधाग्निना) ज्ञान रूप अग्नि से (समारब्धदेहेतरत्) प्रारब्ध कर्म से भिन्न (कर्म जातम्) संवित कम का समूह (सत्वरम्) शीघ्र ही (भस्मतां एति ) भस्भ रूपता को प्राप्त हो जाता है और (एष्यता कर्मणापि) प्रारब्ध कर्म से उत्पन्न हुए शुभाशुभ रूप अगामी कम से भी (बोधोज्ज्वल:एष) ज्ञान से निर्मल हुश्रा यह ब्रह्म वेत्ता (न श्लिष्यते) लिपायमान नहीं होता है, (जीवनेन इव पद्मच्छदः) जैसे जल में रहा हुआ भी कमलपत्र जल से लेपायमान नहीं होता । भाव यह है कि प्रारब्ध कर्म भोग से नाश हो जाता है, संचित कम का ज्ञान अग्निसे दाह होजाता है और अगामी कम का ज्ञानीको स्पर्श ही नहीं होता, क्योंकि भक्त लोगों को ज्ञानी के आगामी पुण्य मिल जाते हैं और ज्ञानी के निंदक द्वेषी लोगों को ज्ञानी के आगामी पाप कर्म चले जाते हैं। यह सर्व अर्थ श्रुति स्मृति तथा सूत्रसंप्र दायिक ग्रंथों में स्पष्ट रूप से खोला हुआ है।१६।। शंका-संचित श्रगामी कम के सदृश प्रारब्ध कर्म की भी निवृत्ति क्यों नहीं मानी ? समाधान-यदि प्रारब्ध की भी निवृत्ति हो जाती हो तो ज्ञानी को सामग्री के प्रभाव से भोग नहीं होगा इस तात्पर्य से प्रारब्धकर्म की स्थिति दृष्टांत से बतलाई जाती है चोरबाधेपि तज्जन्यभीत्यादिवचे लदाहेपि भस्मेव वेलाकृति । ज्ञानिनां विश्वमादेह पातं स्वतो बाधितत्वेपि चारब्धभोगक्षमम् ।।१७।।
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