प्रकरण ३ श्ली० १४ [ २३१ जैसे श्रज्ञान मात्र से प्राप्त कंठी की बोध से प्राप्ति होती है वैसे ही अज्ञान से प्राप्त आत्मा की बोध मात्र से प्राप्ति होती है। इससे ज्ञान का प्रारंभ कर, श्रुति कहती है कि इस आत्मज्ञान द्वारा सर्व आत्मा को जान ॥१४॥ ( कंठ चामीकर न्यायत: मोह मात्रात् अलब्धस्य स्वात्मनः तु असौ लाभः बोध मात्रम्) जैसे कंठस्थ सुवर्ण भूषण का ही, कोई पुरुष उस भूषण के खो जाने की शंका से, अन्वेषण करे फिर दैवात् पास आये हुए किसी दयालु ने उससे कहा कि तेरे गले में ही वह भूषण है, तब उस पुरुष को भूषण का बोध मात्र लाभ है, क्योंकि भूषण तो नित्य प्राप्त है। तैसे अज्ञानमात्र से अप्राप्त अपने श्रात्मा का पूर्व उक्त यह लाभ भी आत्मा का बोध मात्र ही है, क्योकि अपना आत्मा किसी काल में भी और किसी भी पुरुष को प्राप्त नहीं है, ( यस्मात् श्रुति प्राह भूयः पदेनानुर्विदेत् इति) जिस कारणसे श्रुति भगवती (आत्मे त्युपासीत ) इस प्रकार (तदाक्रम्य ) उस ज्ञान को प्रथम प्रारंभ करके अर्थात् ग्रहण करके (भूयः) पुनः फिर यह (प्राह) कहती है कि (पदेनानुविंदेत् इति ) ‘अनेन ह्यतत्सर्वं वेद यथाह वैपदेनानुर्विदेत् इति' अर्थात् इस आत्म ज्ञान से ही सर्व आत्मा को जानते हैं। जैसे दृष्टांत है कि पशु को लोग खुरके चिह्न से ही खोजते हैं।॥१४॥ शंका-आपने पूर्व कहा है कि ज्ञान से अज्ञान का नाश होजाता है, यह यथार्थ है तथापि जैसे नष्ट हुआ जगत् फिर होजाता है तैसेही नष्ट हुआ ज्ञान भी फिर हो जावेगा । इस शंका का निरसन किया जाता है
पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२३९
दिखावट