सामग्री पर जाएँ

पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२३८

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

२३० ] स्वाराज्य सिद्धि लाभोऽस्ति परो निजात्म लाभात् ॥१३॥ पृथ्वी के जितने परमाणु हैं उतने अर्थात् अनंत ब्रह्मा व्यतीत होजाने पर भी जो प्राप्त नहीं हुआ है ऐसा सर्वथा दुःखरहित अनंत सुख समुद्ररूप निजात्म लाभ से अन्य कोई उत्तभ लाभ नहीं है ॥१३॥ ( भूपरमाणु भूरिसंख्येषु चतुमुखेषु अपि अपयातेषु ) पृथिवी के परमाणुओं से भी अधिक संख्या वाले हिरण्यगभ के व्यतीत हो जाने पर भी (अलब्धात् दुःख निरंत सौख्य सिंधोः निज आत्मलाभात् परो लाभो नच अस्ति) न प्राप्त हुए दुःख सपक शून्य अनंत सुख समुद्र रूप निज श्रात्म लाभ स उत्तम और कोई लाभ नहीं है । भाव यह है कि अनेक वार अति दुर्लभ चतुरानन पदवी प्राप्त हुई, तुच्छ योनि जन्मों की तो वार्ता ही क्या, परन्तु आत्म लाभ न हुआ, इससे श्रात्म लाभ परम दुर्लभ है।॥१३॥ श्रात्म लाभ भी वास्तव नहीं है, क्योंकि आत्मा नित्य प्राप्त है, परन्तु अज्ञान रूप मोह से प्राप्त हुए के सदृश और ज्ञान से कुन्तीनंदन कर्ण के सदृश प्राप्त हुए के समान आत्मा है। अब इस तत्त्व को कंठस्थ भूषण के दृष्टांत से दिखलाते हैं स्रग्विणी छन्द । मोह मात्रादलब्धस्य लाभस्त्वसो स्वात्मनः कंठचामीकर न्यायतः । बोधमात्रं तदाक्रम्य यस्माच्छूतिः प्राहभूयः पदेनानुविन्द्वेदिति ॥१४