प्रकरण २ श्लो० ३६ पदार्थ ज्ञान के अधीन वाक्यार्थ ज्ञान होता है, इसलिये पहले तत् पदार्थो ब्रह्म में तथा त्वं पदार्थ जीवात्मा में सत् वित् श्रानंद रूपता दिखलाई । अब उक्त सर्व निर्णय करने पर तत्त्वमसि महावाक्य के अर्थ का निश्चय होता है, यह दिखलाया जाता है । इत्थं मीमांसमाने श्रुनि गुरुवचनैर्युक्तिभिश्चा नुभूत्या शश्वजीवेशतत्वे निपुणमधिगते वस्तुतो लक्षणेक्ये । निष्प्रत्यूहं निजार्थ समधिगमयितुं तत्त्वमस्यादि वाक्यान्याद्यन्तावेक्षणायैरधिगत इस प्रकार श्रुति, गुरु वाक्य, युक्ति और अनुभव से जीव और ईश्वर के स्वरूप लक्षणों के विचार करने से एकता का निश्चय होता है । उपक्रमोपसंहार से निश्चत किये हुए तत्वमासि महा वाक्य ही विघ्न रहित चिद् श्रभिन्न प्रत्यगात्मा का जैसा है वैसा यथार्थ निश्चय कराने में समर्थ है ॥३६॥ (इत्थम् ) पूर्व उक्त रीति से (श्रुति गुरु वचनैः) वेद के तथा गुरुञ्श्रों के वचनों से तथा (युक्तिभिः ) वेदानुकूल युक्तियाँ से तथा ( अनुभूत्या ) अपने अनुभव से (शश्वत् जीवेश तत्त्वे मीमांसमाने ) निरंतर जीव के तथा ईश्वर के स्वरूप का विचार करने पर ( वस्तुत: लक्षणैक्ये निपुणमधिगते) परमार्थ से जीव
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