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बुवाणं ब्र यात् प्रिय रोत्स्यतीतीश्वरो हतथैव स्यात् ।’ यह बृहदारण्योपनिषत् की श्रति कहती है । इसलिये आत्मा सुख स्वरूप है । (यत् श्रानन्दसंविन्मयेन प्राज्ञेनैक्यं सुषुप्तौ निगदति च ) सुषुप्ति में आनंदरूप ज्ञान प्रचुर प्राज्ञ अर्थात् ईश्वर के साथ श्रात्मा की एकता को ‘तद्यथा प्रिययात्रिया संपरिष्वक्तो न बाह्यकिंचन वेद् नान्तर मेवमेवायं पुरुषः प्राज्ञेनात्मना संपरिष्वक्तो न बाह्यकिंचन वेद नान्तरं तद्वा अस्यैतदाप्तकाममात्मकाममकामं रूप शोकान्तरम्’ यह बृहदारण्यकोपनिषत् की श्रुति कहती है । इसलिये आत्मा आनंद रूप है । (यत् त्रिजगति स्वानुकूले इच्छा स्वप्रतीपे जिहासा विदिता) तीन लोकस्थ प्राणियों को अपने पर उपकार करने वाले स्वानुकूल पदार्थ में इच्छा अर्थात् राग विदित है और अपने पर उपकार न करने वाले प्रतिकूल या विरोधी पदार्थमें त्याग की इच्छारूप द्वेष विदित है । भाव यह है कि स्वविरोधी स्त्री पुत्र आदिक पदार्थ भी प्रिय नहीं लगते, किंतु स्वानुकूल हुए ही प्रिय लगाते हैं। यह अर्थ श्रीमुनि याज्ञवल्क्य महाराज ने सर्व साधन संपन्न विरक्त हृदय सकलमितानुभाषिणी पंरम मुमुक्षान्वित स्वप्रिय भार्या मेंत्रेयी के प्रति ‘स होवाच न वारे पत्युःकामाय पतिः प्रियो भवत्यात्मनस्तुकामाय पतिः प्रियो भवति' इत्यादि वचनों से कहा है । इसलिये आत्मा श्रानंदरूप है । (यच स्यां सर्वदेति स्पृहयति ) ‘में सर्वदा काल ही बना रहूं, मेरा श्रभाव कभी भी न होवे' इस प्रकार सव प्राणी श्रानंदरूप श्रात्मा की ही इच्छा करते हैं । भाव यह है कि यदि दु:खरूप श्रात्मा होता तो श्रात्मा की कोई भी इच्छा न करता । सर्व प्राणी सुख की ही इच्छा करते हैं। इसीलिये श्रात्मा के सर्व के सर्व काल बने रहने की इच्छा वाले सब प्राणी होते हैं अतः आत्मा आनंद स्वरूप है।॥३५॥