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पृष्ठम्:वैशेषिकदर्शनम्.djvu/५८

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'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेपेिक दर्शन ।

लेकर व्यवहार करता है, इस लिए वर्तमान के साथ भूत भवि. ष्यत् का भी निर्देशा किया है ।

तथा दक्षिणाप्रतीची उदीची च ॥१७

वैसे दक्षिणा, मदीची और उदीची भी ।

व्या-उदय होते हुए सूर्य के सम्मुख पढ़े होने पर जिधर दक्षिण हाथ है, वह दक्षिणा, जिधर पीठ है, वह मतीची, जिघर वाम हाथ, वह उदीची कहलाती है । यहां भी भूत और भविः ष्यत् सैयेोग को लेकर व्यवहार भांचीवद तुल्य हैं ।

एतेन दिगन्तरालानि व्याख्यातानि १६

इस से दिगन्तराल व्याख्या किये गए।

व्या-इसी रीति से दिशाओं के अन्तराल भी जानने । अर्थात् पूर्व और दक्षिण के अन्तराल की दिशा दक्षिणपूर्वा इसी प्रकार दक्षिणपश्चिमा, पश्चिमेोत्तरा, उत्तरपूर्वा । इसी प्रकार ऊपरली और निचली दिशा जाननी ।

संगति-अब आत्मा का प्रकरण आरम्भ करने से पूर्व पूर्वोक्त शब्द की परीक्षा करना चाहते हुए परीक्षा के अंग संशय के कारण दिखलाते है

सामन्यप्रत्यक्षाद् विशेषाप्रत्यक्षाद् विशेषस् तेश्च संशयः ॥ १७ ॥

सामान्य के प्रत्यक्ष से, विशेष के अमत्यक्ष से और विशेष की स्पति से संशाय होता .है । व्या-जब किसी वस्तु का सामान्य रूप प्रत्यक्ष हो, और विशेष रूप अप्रत्यक्ष हो, प५ वशव की स्मृति हो, तो संशय