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पृष्ठम्:वैशेषिकदर्शनम्.djvu/३९

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अ. १ आ. १ सू. ८

करके खण्डन कर दिया है, कि पाद विशेषविना दूसरे विशेषों के स्वतः व्याछत्त माने जा सकते हैं, तो.निख द्रव्यों को ही . स्वतः ज्यादृत् मान.ळेने में क्या बाधा है, इसलिए विशेष कोई अलग पदार्थ नहीं है।

संगति-पूर्वोक्त सत्ता आदि का उपपाट्न करते हैं

', सदिति यतो द्रव्यगुणकर्मसु सासत्ता ॥७॥

...). ‘सत्’ यह जिससे द्रव्यगुणकर्म में होते हैं, वह सत्ता है । .' व्या०-द्रव्यगुणकर्म में ‘सत्, स' अर्थात् द्रव्यसत् है, गुण सत् है, कर्म सत् है, ऐसी प्रतीति और व्यवहार जिससे होते हैं, वह धर्म टन में सत्ता है ।

. , द्रव्यगुणकर्मभ्यो ऽर्थान्तरं सत्ता ॥८॥

द्रव्यगुण कर्ग से अलंग-पदार्थ हें सत्तां (थादे इन में से कोई एक पदार्थ होती, तो -सब में संद सव मतीति न होती)।

' गुणकर्मसु च भावात् न कर्म न गुणः ॥९॥

। तथा गुणों और कर्मों में होने से ‘ (सत्ता) न कर्मे हैं, न गुण है (क्योंकि गुणों और कम में गुणक नहीं रहते, वे द्रव्यू 'के आश्रथ ही रहते हैं, गुणों और कमों में पाईजाने से द्रव्य तो मुतरां ही नहीं, द्रव्य तो गुण कर्म का आधार होता है, आषय नहीं)

व्या०-यदि सत्ता द्रव्यगुण कर्म से . भिन्न न होती, तो