सामग्री पर जाएँ

पृष्ठम्:वैशेषिकदर्शनम्.djvu/३८

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति
३६
'वैशेषिक-दर्शन ।

वैशेषिक दर्शन

सिद्ध करने के लिए इस मकार व्याख्या की है, कि सामान्य विशष जो जातेयां हैं, ये जातंयां उन विशष पदार्थों से अलग हैं, जो विशेष पदार्थ अन्त में अर्थात् निस द्रव्यों में रहते हैं । आशाप यह हैं, कि वहूत सी व्यक्तियों में जो एकाकार बुद्धि होती है, उसका हेतु उन सब व्यक्तियों में कोई एक पदार्थ अवश्य छै, झही जाते है। अव जो भेद बुद्धि होती है उमका हेतु भी कोई अवश्य होना चाहिये । गौ का घोड़े से भेद कराने वाली सो गोत्व जाति बन सकती है । और एक गौ का दूसरी गौ से भेद कराने वाली उसकी विलक्षण आकृति वन जाती है। और जहां जाति और आकृतिदोनों नहीं, जैसे परमाणु, उनमें भेद कराने वाले उनके गुण हो सङ्कते हैं । परं जहां गुण भी भेदक न हों। जैसे पृथिली के दो परमाणु, उनमें भेद कराने वाला कौन है ? और भेद उनमें भी प्रतीत होता है, इसलिए वहां भी भेद बुद्धि क्षा हेतु अवश्प कोई पदार्थ है, वह उसळी विशेप है । वह निर द्रव्यों में रहता है । अव याद च सब में एक हो, तो फिर भी भेद न करा सके. इमलिए बड एक २ द्रव्य में अळग २ रहता है, और परमाणु अनन्त हैं, इसलिए वे विशेष भी अनन्त हैं। ऐसे विशेष का प्रतिपादन ‘अन्यत्रान्त्येभ्यो विशेषेभ्यः' इस सूत्र में हैं ।

अव पह प्रश्न, कि उन विशेषों का भी तो आपस में भेद है, उस भेद का कराने वाला कौन है, इसका उत्तर यह दिया जाता है, कि वे तो हें ही विशेष, अतएव द्वे खतः च्याछत्त (स्वभावतः भिन्न) हैं । इस प्रकार व्याख्याकारों ने एक विशेष पदार्थ की स्थापना की है। फिर नवीनों ने इस पर यह भाक्षेप