स्तुतिपाठ कर जगाने वाले वैतालिक रूपी भौरों ने, सब विरहिजनों के समूहों का संहार करने में प्रबल और स्त्री पुरुषों की परस्पर संभोग की अभिलाषा के सहायक, वसन्तऋतु की, अथवा कामदेव के मित्र वसन्त ऋतु की, मानों यश: प्रशस्ति का पाठ करना प्रारम्भ कर दिया है। अर्थात् वसन्त ऋतु के आने से भौरों की गुंजार चारों ओर होने लगी है जो कामोत्पादक है। तीनों लोकों की मनिनिओं के कोप को हठात् दूर कर देने वाली कोकिलाओं की कूक भी प्रारम्भ हो गयी है। अगर इसके ऊपर भी कामदेव, खेलवाड में अपने फूलों के धनुष्य को चलाने लगें तो भले ही चलावें, उनका कार्य तो भृङ्ग आदि सेवकों ने कर ही दिया है। कूजत्कोकिल कोपिता गुलिधनु:शिक्षां समासेवते खिन्ना चन्दनमारुतेन मलये दावाग्निमाकाङ्घर्ति । किश्चान्विष्यति दुग्मंना दलयितुं कामेन मैत्रीं मधोः कर्तुं धावति दुर्लभे त्वयि सखी कां कां न वातूलताम् ॥६६॥ अन्वयः त्वयि दुर्लभे (सति), सखी कूजत्कोकिलकोपिता (सती) गुलिधनुशिक्षां समासेवते । चन्दनमारुतेन खिन्ना (सती) मलये दावाग्निम् आकाङ्कति । किञ्च दुर्मनाः (सती) कामेन मधोः मैत्रीं दलयितुम् अन्विष्यति । कां कां वातूलतां कर्तु न धावति । ਕ त्वयि विक्रमाडूदेवे दुर्लभे दुष्प्राप्ये सति त्वद्वियोगावस्थायामित्यर्थः । सखी कामिनी कूजद्भिः शब्दं कुर्वाणैः कोकिलैः पिकैः कोपिता रोषं प्रापिता सती
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