महाभारतम्-18-स्वर्गारोहणपर्व-005
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वैशंपायनेन जनमेजयंप्रति भीष्मद्रोणादीनां स्वस्वसुकृतफलत्वेन स्वर्गभोगानन्तरं स्वैस्स्वैरंशिभिः सहैक्यप्राप्तिकथनम्।। 1 ।।
जनमेजयेन यज्ञान्ते सबहुमानमास्तिकादिप्रेषणपूर्वकं तक्षशिलातो हास्तिनमेत्य प्रजापालनपूर्वकं सुखनिवासः।। 2 ।।
सौतिना शौनकादीन्प्रति जनमेयाय वैशम्पायनोक्तभारतकथनसमापनपूर्वकं भारतमहिमप्रशंसनम्।। 3 ।।
जनमेजय उवाच। | 18-5-1x |
भीष्मद्रोणौ महात्मानौ धृतराष्ट्रश्च पार्थिवः। विराटद्रुपदौ चोभौ शङ्खश्चैवोत्तरस्तथा।। | 18-5-1a 18-5-1b |
धृष्टकेजुर्जयत्सेनो राजा चैव स सत्यजित्। दुर्योधनसुताश्चैव शकुनिश्चैव सौबलः।। | 18-5-2a 18-5-2b |
कर्णपुत्राश्च विक्रान्ता राजा चैव जयद्रथः। घटोत्कवादयश्चैव ये चान्ये नानुकीर्तिताः।। | 18-5-3a 18-5-3b |
ये चान्ये कीर्तिता वीरा राजानो दीप्तमूर्तयः। स्वर्गे कालं कियन्तं ते तस्थुस्तदपि शंस मे।। | 18-5-4a 18-5-4b |
आहोस्विच्छाश्वतं स्थानं तेषां तत्र द्विजोत्तम। अन्ते वा कर्मणां कां ते गतिं प्राप्ता नरर्षभाः।। | 18-5-5a 18-5-5b |
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं प्रोच्यमानं द्विजोत्तम। तपसा हि प्रदीप्तेन सर्वं त्वमनुपश्यति।। | 18-5-6a 18-5-6b |
सौतिरुवाच। | 18-5-7x |
इत्युक्तः स तु विप्रर्षिरनुज्ञातो महात्मना। व्यासेन तस्य नृपतेराख्यातुमुपचक्रमे। | 18-5-7a 18-5-7b |
वैशम्पायन उवाच। | 18-5-8x |
गन्तव्यं कर्मणामन्ते सर्वेषां मनुजाधिप। शृणु गुह्यमिदं राजन्देवानां भरतर्षभ। यदुवाच महातेजा दिव्यचक्षुः प्रतापवान्।। | 18-5-8a 18-5-8b 18-5-8c |
मुनिः पुराणः कौरव्य पाराशर्यो महाव्रतः। अगाधबुद्धिः सर्वज्ञो गतिज्ञः सर्वकर्मणाम्।। | 18-5-9a 18-5-9b |
तेनोक्तं कर्मणामन्ते प्रविशन्ति स्विकां तनुम्।। | 18-5-10a |
वसूनेव महातेजा भीष्मः प्राप महाद्युतिः। अष्टावेव हि दृश्यन्ते वसवो भरतर्षभ।। | 18-5-11a 18-5-11b |
बृहस्पतिं विवेशाथ द्रोणो ह्यङ्गिरसां वरम्। कृतवर्मा तु हार्दिक्यः प्रविवेश मरुद्गणान्।। | 18-5-12a 18-5-12b |
सनत्कुमारं प्रद्युम्नः प्रविवेश यथागतम्। धृतराष्ट्रो धनेशस्य लोकान्प्राप दुरासदान्।। | 18-5-13a 18-5-13b |
धृतराष्ट्रो सहिता गन्धारी च यशस्विनी। पत्नीभ्यां सहितः पाण्डुमहेन्द्रसदनं ययौ।। | 18-5-14a 18-5-14b |
विराटद्रुपदौ चोभौ धृष्टकेतुश्च पार्थिवः। निशठाक्रूरसाम्बाश्च भानुः कण्वो विदूरथः।। | 18-5-15a 18-5-15b |
भूरिश्रवाः शलश्चैव भूरिश्च पृथिवीपतिः। कंशश्चैवोग्रसेनश्च वसुदेवस्तथैव च।। | 18-5-16a 18-5-16b |
उत्तरश्च सह भ्रात्रा शङ्खेन नरपुङ्गवः। विश्वेषां देवतानां ते विविशुर्नरसत्तमाः।। | 18-5-17a 18-5-17b |
[वर्चा नाम महातेजाः सोमपुत्रः प्रतापवान्। सोभिमन्युर्नृसिंहस्य फल्गुनस्य सुतोऽभवत्।। | 18-5-18a 18-5-18b |
स युद्ध्वा क्षत्रधर्मेण यथा नान्यः पुमान्क्वचित्।] विवेश सोमं धर्मात्मा कर्मणोन्ते मरारथः।। | 18-5-19a 18-5-19b |
आविवेश रविं कर्णो निहतः पुरुषर्षभ। द्वापरं शकुनिः प्राप धृष्टद्युम्नस्तु पावकम्।। | 18-5-20a 18-5-20b |
धृतराष्ट्रात्मजाः सर्वे यातुधानान्प्रपेदिरे। धर्ममेवाविशत्क्षत्ता राजा चैव युधिष्ठिरः।। | 18-5-21a 18-5-21b |
अनन्तो भगवान्देवः प्रविवेश रसातलम्। पितामहनियोगाद्वै यो योगाद्गामधारयत्।। | 18-5-22a 18-5-22b |
यः स नारायणो नाम देवदेवः सनातनः। तस्यांशो वासुदेवस्तु कर्मणोन्ते विवेश ह।। | 18-5-23a 18-5-23b |
षोडशस्त्रीसहस्राणि वासुदेवपरिग्रहाः। अमज्जंस्ताः सरस्वत्यां कालेन जनमेजय।। | 18-5-24a 18-5-24b |
तत्र त्यक्त्वा शरीराणि दिवमारुरुहुः पुनः। ताश्चैवाप्सरसो भूत्वा वासुदेवमुपाविशन्।। | 18-5-25a 18-5-25b |
हतास्तस्मिन्महायुद्धे ये वीरास्तु महारथाः। घटोत्कचादयश्चैव देवान्यक्षांश्च भेजिरे।। | 18-5-26a 18-5-26b |
दुर्योधनसहायाश्च राक्षसा येऽनुकीर्तिताः। प्राप्तास्ते क्रमशो राजन्सर्वलोकाननुत्तमान्।। | 18-5-27a 18-5-27b |
भवनं च महेन्द्रस्य कुबेरस्य च धीमतः। वरुणस्य तथा लोकान्विविशुः पुरुषर्षभाः।। | 18-5-28a 18-5-28b |
एतत्ते सर्वमाख्यातं विस्तरेण महाद्युते। कुरूणां चरितं कृत्स्नं पाण्डवानां च भारत।। | 18-5-29a 18-5-29b |
सौतिरुवाच। | 18-5-30x |
एतच्छ्रुत्वा द्विजश्रेष्ठात्स राजा जनमेजयः। विस्मितोऽभवदत्यर्थं यज्ञकर्मान्तरेष्वथ।। | 18-5-30a 18-5-30b |
ततः समापयामासुः कर्म तत्तस्य याजकाः। आस्तिकश्चाभवत्प्रीतः परिमोक्ष्य भुजङ्गमान्।। | 18-5-31a 18-5-31b |
ततो द्विजातीन्सर्वास्तान्दक्षिणाभिरतोषयत्। पूजिताश्चापि ते राज्ञा ततो जग्मुर्यथागतम्।। | 18-5-32a 18-5-32b |
विसर्जयित्वा विप्रांस्तान्राजाऽपि जनमेजयः। हृष्टस्तक्षशिलायाः स पुनरायाद्गचाह्वयम्।। | 18-5-33a 18-5-33b |
एतत्ते सर्वमाख्यातं वैशम्पायनकीर्तितम्। व्यासाज्ञया समाज्ञातं सर्पसत्रे नृपस्य हि।। | 18-5-34a 18-5-34b |
पुण्योऽयमितिहासाख्यः पवित्रं चेदमुत्तमम्। कृष्णेन मुनिना विप्र निर्मितं सत्यवादिना।। | 18-5-35a 18-5-35b |
सर्वज्ञेन विधिज्ञेन धर्मज्ञानवता सता। अतीन्द्रियेण शुचिना तपसा भावितात्मना।। | 18-5-36a 18-5-36b |
ऐश्वर्ये वर्तता चैव साङ्ख्ययोगवता तथा। नैकतन्त्रविबुद्धेन दृष्ट्वा दिव्येन चक्षुषा।। | 18-5-37a 18-5-37b |
कीर्तिं प्रथयता लोके पाण्डवानां महात्मनाम्। अन्येषां क्षत्रियाणां च भूरिद्रविणतेजसाम्।। | 18-5-38a 18-5-38b |
`क्रीडां च वासुदेवस्य देवदेवस्य शाङ्गिणः। विश्वेषां देवभागानां जन्मसायुज्यमेव च।। | 18-5-39a 18-5-39b |
य इदं शृणुयाद्विद्वान्पर्वसु द्विजसत्तमः। धूतपाप्मा जितस्वर्गो ब्रह्मभूयाय गच्छति।। | 18-5-40a 18-5-40b |
कार्ष्णं वेदमिमं सर्वं शृणुयाद्यः समाहितः। ब्रह्महत्याकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।। | 18-5-41a 18-5-41b |
यश्चेदं श्रावयेच्छ्राद्धे ब्राह्मणान्पादमन्ततः। अक्षय्यमन्नपानं वै पितॄंस्तस्योपतदिष्ठते।। | 18-5-42a 18-5-42b |
अह्ना यदेनः कुरुते इन्द्रियैर्मनसाऽपि वा। महाभारतमाख्याय सर्पपापैः प्रमुच्यते।। | 18-5-43a 18-5-43b |
[यद्रात्रौ कुरुते पापं ब्राह्मणः स्त्रीगणैर्वृतः। महाभारतमाख्याय पूर्वां सन्ध्यां प्रमुच्यते।। | 18-5-44a 18-5-44b |
महत्त्वाद्भारवत्त्वाच्च महाभारतमुच्यते। निरुक्तमस्य यो वेद सर्वपापैः प्रमुच्यते।। | 18-5-45a 18-5-45b |
अष्टादशपुराणानि धर्मशास्त्राणि सर्वशः। वेदाः साङ्गास्तथैकत्र भारतं चैकतः स्थितम्।। | 18-5-46a 18-5-46b |
श्रूयतां सिंहनादोऽयमृषेस्तस्य महात्मनः। अष्टादशपुराणानां कर्तुर्वेदमहोदधेः।। | 18-5-47a 18-5-47b |
त्रिभिर्वर्षैर्महत्पुण्यं कृष्णद्वैपायनः प्रभुः। अखिलं भारतं चेदं चकार भगवान्मुनिः।। | 18-5-48a 18-5-48b |
[आकर्ण्य भक्त्या सततं जयाख्यं भारतं महत्। श्रीश्च कीर्तिस्तथा विद्या भवन्ति सहिताः सदा।।] | 18-5-49a 18-5-49b |
धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ। यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न कुत्रिचित्।। | 18-5-50a 18-5-50b |
"वाच्यते यत्र सततं जयाख्यं भारतं महत्। श्रीश्व कीर्तिश्च विद्या च भवन्ति मुदिताः सदा।। | 18-5-51a 18-5-51b |
भारतस्य तु वक्तारं ब्रह्मर्षि च महागुरुम्।। वैशंपायनमारोप्य स्वर्णभद्रासनं तदा।। | 18-5-52a 18-5-52b |
जनमेजयादिराजान आस्तिकाद्या द्विजातयः। धर्मदत्तादिवैश्याश्च सोम्यवंश्यादिशूद्रकाः।। | 18-5-53a 18-5-53b |
प्रयुतं चायुतं चेति सहस्रं शतमित्यपि। दशकं चेति निष्काणामानर्चुस्तं महागुरुम्।। | 18-5-54a 18-5-54b |
निष्काणां दशकं दत्त्वा मृतपुत्रोऽमृतप्रजः। ऊष्मादिव्याधियुक्तश्च शतं दत्त्वा निरामयः।। | 18-5-55a 18-5-55b |
सहस्रदानात्संतानहीनः संतानपुत्रवान्। आयुरारोग्यमैश्वर्यं भेजुस्तेऽन्नं च पुत्रकान्।। | 18-5-56a 18-5-56b |
सुवर्णं रजतं रत्नं सर्वाण्याभरणानि च। सर्वोपकरणैर्युक्तं निधिनिक्षेपसंयुतम्।। | 18-5-57a 18-5-57b |
इष्टकाभित्तिसंयुक्तमग्निबाधादिवर्जितम्। देवपूजाग्निहोत्रादिपाठार्थगृहसंयुतम्। सान्तर्बहिस्संवरणं सप्रासादं सगोगृहम्।। | 18-5-58a 18-5-58b 18-5-58c |
व्यष्ट्या समष्ट्या वा दद्यात्स्वर्गारोहणपर्वणि। निवृत्तिकामो दद्याच्चेत्पुनर्जन्म न विद्यते।। | 18-5-59a 18-5-59b |
सकामश्चेद्ब्रह्मकल्पं सुकं ब्रह्मगृहे वसेत्।। | 18-5-60a |
पुराणमुखतो यस्माद्वेदान्तज्ञानमाप्यते। स तेन गुरुराख्यातस्तत्पूजा हीशपूजनम्।। | 18-5-61a 18-5-61b |
भारतस्य तु वक्तारं श्रोतारं लेखकांस्तदा। प्रपूजयन्ति संहृष्टाः सिद्धाश्च परमर्षयः।। | 18-5-62a 18-5-62b |
महाभारतवक्तारं नार्चयन्तीह ये नराः। तेषां सर्वक्रियाहानिर्भवेद्देवाः शपन्ति च।।' | 18-5-63a 18-5-63b |
जयो नामेतिहासोऽयं श्रोतव्यो जयमिच्छता। राज्ञा राजसुतैश्चैव गर्भिण्या चैव योषिता।। | 18-5-64a 18-5-64b |
[स्वर्गकामो लभेत्स्वर्गं जयकामो लभेज्जयम्। गर्भिणी लभते पुत्रं कन्यां वा बहुभागिनीम्।। | 18-5-65a 18-5-65b |
अनागतश्च मोक्षश्च कृष्णद्वैपायनः प्रभुः। संदर्भं भारतस्यास्य कृतवान्धर्मकाम्यया।। | 18-5-66a 18-5-66b |
षष्टिं शतसहस्राणि चकारान्यां स संहिताम्। त्रिंशच्छतसहस्राणि देवलोके प्रतिष्ठितम्।। | 18-5-67a 18-5-67b |
पित्र्ये पञ्चदशं ज्ञेयं यक्षलोके चतुर्दश। एकं शतसहस्रं तु मानुषेषु प्रभाषितम्।। | 18-5-68a 18-5-68b |
नारदोऽश्रावयद्देवानसितो देवलः पितॄन्। रक्षोयक्षाञ्शुको मर्त्यान्वैशम्पायन एव तु।। | 18-5-69a 18-5-69b |
इतिहासमिमं पुण्यं महार्थं वेदसंमितम्। व्यासोक्तं श्रूयते येन कृत्वा ब्राह्म्णमग्रतः।। | 18-5-70a 18-5-70b |
स नरः सर्वकामांश्च कीर्तिं प्राप्येह शौनक। गच्छेत्परमिकां सिद्धिमत्र मे नास्ति संशयः।। | 18-5-71a 18-5-71b |
भारताध्ययनात्पुण्यादपि पादमधीयतः। श्रद्धया परया भक्त्या श्राव्यते चापि येन तु। य इमां संहितां पुण्यां पुत्रमध्यापयच्छुकम्।। | 18-5-72a 18-5-72b 18-5-72c |
मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च। संसारेष्वनुभूतानि यान्ति यास्यन्ति चापरे।। | 18-5-73a 18-5-73b |
हर्षस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च। दिवसेदिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम्।। | 18-5-74a 18-5-74b |
ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चिच्छृणोति मे। धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते।। | 18-5-75a 18-5-75b |
न जातु कामान्न भयान्न लोभा- द्धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः। नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनिथ्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः।। | 18-5-76a 18-5-76b 18-5-76c 18-5-76d |
इमां भारतसावित्रीं प्रातरुत्थायः यः पठेत्। स भारतफलं प्राप्य परं ब्रह्माधिगच्छति।। | 18-5-77a 18-5-77b |
कयथा समुद्रो भगवान्यथा हि हिमवान्गिरिः। ख्यातावुभौ रत्ननिधी तथा भारतमुच्यते।। | 18-5-78a 18-5-78b |
कार्ष्णं देवमिमं विद्वाञ्श्रावयित्वाऽर्थमश्नुते। इदं भारतमाख्यानं यः पठेत्सुसमाहितः। स गच्छेत्परमां सिद्धिमिति मे नास्ति संशयः।। | 18-5-79a 18-5-79b 18-5-79c |
द्वैपायनोष्ठपुटनिस्सृतमप्रमेयं पुण्यं पवित्रमथ पापहरं शिवं च। यो भारतं समधिगच्छति वाच्यमानं किं तस्य पुष्करजलैरभिषेचनेन।। | 18-5-80a 18-5-80b 18-5-80c 18-5-80d |
यो गोशतं कनकशृङ्गमयं ददाति विप्राय वेदविदुषे सुबहुश्रुताय। पुण्यां च भारतकथां सततं शृणोति तुल्यं फलं भवति तस्य च तस्य चैव।।] | 18-5-81a 18-5-81b 18-5-81c 18-5-81d |
"यद्यदिष्टतमं कामं लभते श्रद्धयाऽन्वितः। शृणुयान्मुदितो भूत्वा आस्तिको बुद्धिसंयुतः।। | 18-5-82a 18-5-82b |
वासुदेवं स्मरन्विद्वान्पुण्डरीकायतेक्षणम्। | 18-5-83a 18-5-83b |
श्रावयेद्यस्तु वर्णादीन्कृत्वा ब्राह्मणमग्रतः। | 18-5-84a 18-5-84b |
इह कीर्तिं महत्प्राप्य भोगवान्सुखमश्नुते। | 18-5-85a 18-5-85b |
एतद्विदित्वा सर्वं तु सर्ववेदार्थविद्भवेत्। | 18-5-86a 18-5-86b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शतसाहस्र्यां संहितायां वैयासिक्यां स्वर्गारोहणपर्वणि पञ्चमोऽध्यायः।। 5 ।। | |
।। समाप्तं स्वर्गारोहणपर्व।। 18 ।। इति श्रीमन्महाभारतं समाप्तम्।। | |
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18-5-8 न शक्यं कर्मिणामन्ते सर्वेण मनुजाधिप। प्रकृतिं किंनु सम्यक्ते पृच्छैषा सम्प्रयोजितेतिय ज्ञ. पाठः।। 18-5-36 विधिज्ञेन दैवज्ञेन। अतीन्द्रियेणेन्द्रियाण्यतिक्रान्तेन।। 18-5-38 सर्वेषां तृतीयान्तानां निर्मितमित्यनेनान्वयः। अन्येषामपि कीर्तिवासुदेवस्य क्रीडां च प्रथयतेति सम्बन्धः।। 18-5-40 यश्चेदं श्रावयेद्विद्वान्सदा पर्वणिपर्वणि। ब्रह्मभूयाय कल्पते। इति झ.पाठः।। 18-5-41 ब्रह्महत्यादिप्पपानां कोटिस्तस्य विनश्यति इति झ.पाठः। 18-5-42 अन्ततो निकटे।। 18-5-43 आख्याय पश्चात्संध्यां प्रमुच्यत इति झ.पाठः। तत्र महाभारतस्याल्पमपि पश्चिमायां संध्यायां पठ्यते चेद्दिनकृतं पापं नश्यति। एवं प्रातः संध्यायां रात्रिकृतमित्यर्थः।। 18-5-45 निरुक्तं नामनिर्वचनं।। 18-5-48 त्रिभिर्वर्षैरिदं पूर्णमिति झ.पाठः।। 18-5-50 चकारचतुष्टयादधर्मादिचतुष्टयमप्यत्रोक्तं हानार्तमिति बोध्यम्।। 18-5-64 श्रोतव्यो मोक्षमिच्छता। ब्राह्मणेन च राज्ञा च गार्भिण्या इति पाठः।। 18-5-66 अनागतोऽनागन्तुको नित्यसिद्ध इतियावत्। एवंविधो यो मोक्षः कैवल्यं तदेव स्वरूपं यस्य स मोक्षः। यद्वा मोक्तुमिच्छन्। मुचोऽकर्मिकस्य गुणो वेति सनि गुणोऽभ्यासलोपश्च। मुमुक्षुरित्यर्थः। लोकहित इति भावः।। 18-5-67 अन्यां वेदचतुष्टयसंहिताभ्यः पृथग्भूतां तदर्थवतीम्।। 18-5-70 श्रूयते येन यः शृणोतीत्यर्थः। उभयत्र विभक्तिव्यत्यय आर्षः।। 18-5-72 भारताध्ययनादिति सार्धश्लोकः। यः व्यासः इमां संहितां शुकं पुत्रं अध्यापयत्। तस्य अधीयतो भारताख्यमितिहासं स्मरतः। स्मृत्वा च ग्रन्थरूपेण प्रणयतः। भक्त्या परया श्रद्धया च व्यास एव पूज्यस्तस्य वाक्यं प्रमाणमेवेत्यास्तिक्यबुद्द्या येन पुंसा इदं श्राव्यते सु पुण्यात् पुण्यकरात् अपि पादं श्लोकपादं ग्रन्थपादं वा भारतस्याध्ययनात्परमिकां सिद्धिं गच्छेदिति पूर्वेणान्वयः। व्यासे श्रद्धां बद्ध्वा भारतमध्येव्यभित्यर्थः।। 18-5-73 संध्यायां भारतं पठनीयमित्युक्तं तत्र पठनायोग्यं भारतसारसंप्रहं चतुः श्लोकीरूपमाह मातेति।।
स्वर्गारोहणपर्व-004 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | स्वर्गारोहणपर्व-006 |