सम्भाषणम्:अथर्ववेदः/काण्डं ११/सूक्तम् ०६

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प्राण व सुपर्ण[सम्पाद्यताम्]

प्राणोदक एक चेतनतत्त्व

समानमेतदुदकमुच्चैत्यव चाहभिः।

भूमिं पर्जन्या जिन्वन्ति दिवं जिन्वन्त्यग्नयः।। ऋ. १.१६४.५१

दिव्यं सुपर्णं वायसं बृहन्तमपां गर्भं दर्शतमोषधीनाम्।

अभीपतो वृष्टिभिस्तपर्यन्तं सरस्वन्तमवसे जोहवीमि।। ५२

इन दोनों मन्त्रों का सारांश यह है कि ऊर्ध्वगामी और अधोगामी दोनों प्रकार के उदकों में एक समान तत्व है। दूसरे शब्दों में, पर्जन्य जिस तत्व से भूमि का प्रीणन करते हैं, उसी तत्व से अग्नियां दिव का प्रीणन करती हैं। यह समान तत्व ही ओषधियों का दर्शनीय और बृहत् वायस, अपां गर्भं कहा गया है, जिसका आह्वान रक्षा के हेतु किया जाता है।

अतएव प्रश्न होता है कि क्या दिव्य जलतत्व और पार्थिव अग्नि में समान रूप से  स्थित इस एक देव या दिव्य सुपर्ण को प्राण कहा जा सकता है? इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने चलते हैं तो अथर्ववेद के प्राणसूक्त (११.६) में इसका समाधान दृष्टिगोचर होता है। वहां प्राण के वर्णन में वर्षा का सुन्दर रूपक मिलता है। इस प्रसंग में निम्नलिखित मन्त्र विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं:-

यत्प्राण स्तनयित्नुनाऽभिक्रन्दत्योषधीः ।प्र वीयन्ते गर्भान् दधतेऽथो बह्वीर्वि जायते ॥३॥यत्प्राण ऋतावागतेऽभिक्रन्दत्योषधीः ।सर्वं तदा प्र मोदते यत्किं च भूम्यामधि ॥४॥यदा प्राणो अभ्यवर्षीद्वर्षेण पृथिवीं महीम् ।पशवस्तत्प्र मोदन्ते महो वै नो भविष्यति ॥५॥अभिवृष्टा ओषधयः प्राणेन समवादिरन् ।आयुर्वै नः प्रातीतरः सर्वा नः सुरभीरकः ॥६॥

इन मन्त्रों से स्पष्ट है कि प्राण घनगर्जन के साथ औषधियों में बरसकर उनको पुष्पित, पल्लवित और नाना रूप ग्रहण कराने में समर्थ करता है और प्राण जब पृथिवी पर बरसता है तो पशु प्रसन्न होते हैं और कहते हैं  कि अब हमारा ‘महः’ हो जायेगा। यहां ध्यातव्य है कि महः शब्द भी निघण्टु के उदकनामों में परिगणित है। अन्तिम मन्त्र में कहा गया है कि वर्षा हो जाने पर ओषधियां प्राण से वार्तालाप करती हैं और कहती हैं कि हमारी आयु को बढ़ाओ और हमें शोभनगन्धयुक्त करो।

प्राणों के प्रसंग में, उक्त अथर्ववेदीय सूक्त में वर्षा के रूपक के अतिरिक्त एक बात यह भी उल्लेखनीय है कि जहां पूर्वोक्त ऋग्वेदीय मन्त्र में आपः के समान तत्व अथवा एक देव को दिव्य सुपर्ण, बृहत् वायस तथा अपां गर्भ कहा गया है, वहां प्राणसूक्त में उसी को हंस कहा गया है-

एकं पादं नोत्खिदति सलिलाद्धंस उच्चरन् ।यदङ्ग स तमुत्खिदेन् नैवाद्य न श्वः स्यात्। न रात्री नाहः स्यान् न व्युछेत्कदा चन ॥शौअ ११.६.२१

इस मन्त्र में निघण्टु की उदकसूची का सलिल शब्द भी प्रयुक्त है और कहा गया है कि प्राणरूप हंस सलिल से अपने एक पैर को उठाता है, दूसरे को नहीं, और यदि उस एक को भी उठा  ले तो न रात होगी, न दिन और न कभी भी उषाकाल होगा। इससे संकेत मिलता है कि प्राणों की एक सलिलावस्था भी है, जिससे वह हंस कभी वियुक्त नहीं होता। इसी प्रकार प्राण का ही पूर्वोक्त महः रूप जिन पशवः से सम्बन्धित बताया गया है, वे संभवतः ज्ञानात्मक प्राण ही हैं, क्योंकि ‘पश्यन्तीति पशवः’ कह कर इन्हीं ज्ञानात्मक प्राणों की ओर संकेत किया गया है। दूसरे शब्दों में, जिस उदक को महः कहा गया है, वह किन्हीं ज्ञानपरक प्राणों की किसी उपलब्धि का द्योतक प्रतीत होता है। सम्भवतः ‘महः’ को ‘सुवर्गलोक’[1]  तथा मह इति ब्रह्म[2]  कह कर भी यही संकेत किया गया है। वास्तव में ‘महः’ प्राण का ही एक रूप है--‘प्राणा एव महः[3]।’

यदि इस प्रकार सलिल और महः को प्राणों की ही एक अवस्था मान लिया जाये, तो उदकवाचक अन्य शब्दों के लिए भी इस दिशा में समाधान ढूंढना होगा।


[1] सुवर्गो  वै लोको महः – तै.ब्रा. ३.८.१८.४

[2] सुवरिति यजूंषि । मह इति ब्रह्म - तै.आ. ७.५.१, तै.उ. १.५.३

[3] वाग् एव भर्गः प्राण एव महः - गोब्रा. १.५.१५, जै.ब्रा. २.३.९ Puranastudy (सम्भाषणम्) ११:०२, ४ मे २०२४ (UTC)उत्तर दें