रुद्यां = रोता रहूँ = और अलं = ज़ोर से - प्रभो = हे स्वामी ! = पाशानुवेदनाम षोडश स्तोत्रम् भवाय - - संसाराय, कुप्येयं - ग्राम्यत्वेन संसारमवलोकयेयमित्यर्थः । अनुशयीयेति - कथमियन्तं कालं व्यामूढ आसमिति पश्चात्तापमनु- भवेयम् | इसेयं–प्रमोदेन विकसेयम् । रुद्यां - आनन्दा श्रुप्लुतः स्याम् । रटेयमिति - शिवशिवेति शब्दमुखरः स्याम् । क्षीवँस्यैवमेव नानावृत्त्यु- दयो भवेति ॥ ७ ॥ विषमस्थोऽपि स्वस्थोऽपि रुदन्नपि हसन्नपि । गम्भीरोऽपि विचित्तोऽपि भवेयं भक्तितः प्रभो ॥ ८ ॥ ( भवत् - = आपकी ) भक्तितः = भक्ति ( के चमत्कार ) से - ( अहं = मैं ) विषमस्थः = ( सांसारिक ) विपत्तियों - में फँसे रहने पर अपि = भी शिव-इति = 'शिव' 'शिव' की - रटेयम् = रट लगाता रहूँ ॥ ७ ॥ २५३ ( भवेयं = बना रहूँ; ) रुदन् = ( संबन्धियों की मृत्यु आदि - की दशा में ) रोते हुए अपि = भी हसन् अपि = ( भीतर से चिद्विकास के लाभ के कारण ) हंसता ही ( अर्थात् प्रसन्न ही ) ( भवेयं = रहूँ ) ( तथा = : और) = स्वस्थः = ( चिदानन्द में मग्न होने के गंभीरः अपि = ( लौकिक व्यवहार कारण ) शान्त में ) गंभीर होते हुए भी अपि = ही विचित्तः = ( प्रकट रूप में ) विमूढ सा अपि = ही - भवेयम् = बना रहूँ ॥ ८ ॥* १ घ० पु० क्षीवस्यैव मे - इति पाठः । - २ घ० पु० भवतु — इति पाठः ।
- दूसरे प्रकार से अर्थ - हे स्वामी ! आपकी भक्ति की महिमा से मैं सुखी
होते हुए भी संकट में पड़ा हुआ सा ही बना रहूँ, अर्थात् सांसारिक सुख को दुःख ही समझैँ — लौकिक दृष्टि से सुख भोगने परभ अपने को सूइयों की नोकों की सेज पर पड़ा हुआ ही समझें, हँसते हुए भी अर्थात् प्रसन्न होते हुए भी रोता ही रहूँ, अर्थात् लौकिक दृष्टि से हर्ष के कारण हँसते -