तत् सत् अथ पाशानुद्भेदनाम षोडशं स्तोत्रम् न किञ्चिदेव लोकानां भवदावरणं प्रति । न किञ्चिदेव भक्तानां भवदावरणं प्रति ॥ १ ॥ = ( प्रभो = हे प्रभु ! ) लोकानां = संसारी जनों के लिए भवत्-आवरणं प्रति = स्वरूप ) को ढकने अर्थात् छुपा (चित्- रखने वाला किंचित् = क्या कुछ एव न (अस्ति) = भी नहीं ( है ) ? ( अर्थात् उनके लिए तो सारा संसार भेद - प्रथात्मक ही है ) । भक्तानां = ( इसके प्रत्युत आपके स्वरूप-समावेश-संपन्न ) भक्त-जनों के लिए भवत्-आवरणं प्रति = आपके = स्वरूप को छुपा रखने वाला - किञ्चित् = कुछ एव - भी न = नहीं - ( अस्ति = है ) ॥ १ ॥* भवदावरणं प्रति- चिन्मयत्वत्स्वरूपावरणाय लोकानां - संसारिणां न किश्चिदेव ? काका– अपितु विश्वमेवापर्यन्त समस्तशक्तिचक्रव्यामोहित- त्वात् । भक्तानां तु न किञ्चिदेव-नैव किचिदित्यर्थः, - शिवतत्त्वपर्यन्त स्याशेषस्य स्वाङ्गकल्पतया प्रमेयीकृतत्वात् ॥ १ ॥
- भावार्थ – हे प्रभु ! संसारी जनों के लिए संसार की सभी चीजें तथा बातें
आपके स्वरूप को छुपाये रखने में ही योग देती हैं, किन्तु भक्त जनों के लिए वही सभी चीजें तथा बातें आप के स्वरूप को प्रकट करने में ही योग देती हैं । यही आपकी भक्ति का चमत्कार है । १ ख० ग० पु० अपितु सर्वमेव भेदेन विश्व मेवापर्यन्त समस्त शक्तिचक्रव्यवहि- तत्वादिति पाठः ।