औत्सुक्य विश्वसितनामैकादशं स्तोत्रम् १५३ हते - भवत्स्मृति विना, किं फलं, न किंचिदन्यद्वयतिरिक्तमस्तीति यावत् प्राप्तव्यस्यैव प्राप्तत्वात् ॥ ३ ॥ येन नैव भवतोऽस्ति विभिन्नं किञ्चनापि जगतां प्रभवश्च । त्वद्विजृम्भितमतोऽद्भुतकर्म- स्वप्युदेति न तव स्तुतिबन्धः ॥ ४ ॥
- ( प्रभो = हे ईश्वर ! )
येन = चूंकि भवतः आप (के स्वरूप ) से विभिन्नं = भिन्न किंचन अपि = भी - - न अस्ति = नहीं है और जगतां = ( समस्त ) जगत को प्रभवः = उत्पन्न करने वाला ( अपि = ( ब्रह्मा ) भी ) त्वदू- = आप के ही स्वरूप का - = कुछ विजृम्भितम् एव (अस्ति) = स्फार है, अतः = इस लिए तव = ( संसार की उत्पत्ति तथा नाश - के अद्भुत- = चमत्कार-पूर्ण कर्मसु = कार्यो में - अपि = भी (भेद के भाव के कारण) स्तुति- बन्धः = ( आपकी ) स्तुति करने ( का प्रश्न ही ) न = नहीं - उदेति = उठता ॥ ४॥ - त्वत्तो भिन्नं किंचनापि नास्ति, - सर्वस्य प्रकाशकरूपत्वात् | जगतां प्रभवोऽपि - ब्रह्माद्याः तवैव जृम्भा येन हेतुना, अतः अद्भुतेषु विश्वसर्ग - १. ख० पु० भवत्स्मरणं विनेति पाठः ।
- भाव यह है— हे प्रभु !
का करना आपके बायें हाथ का तथा स्तुति कर्ता आदि के रूपों में स्तुति करे ? ४॥ २. ख० पु० प्रकाशरूपत्वादिति : पाठः इस संसार में अत्यन्त चमत्कार - पूर्ण कार्यो खेल है । जब आप ही स्तुत्य, स्तोत्र, स्तुति भासमान हैं, तो कौन किस की और कैसे