पित्ते व्यक्ता मध्यमायां तृतीयांगुलिगा कफे ।
वातेऽधिके भवेन्नाडी प्रव्यक्तातर्ज्जनीतले ॥२२॥
पित्तके कोपमें मध्यमा अंगुलीमें नाड़ी प्रकट होती है, कफके कोपमें अनामिका अंगुलीमें नाड़ी प्रकट होती है और वायुके कोपमें तर्जनी अंगुलीमें नाड़ी प्रकट होती है ।।२२।।
मुहुः सर्पगतिर्नाडी मुहुर्भेकगतिस्तथा।
तर्जनीमध्यमामध्ये वातपित्तेऽधिकेस्फुटा ॥२३॥
बा(वा)तपित्तकी अधिकतामें वारंवार सर्पकी तरह चलनेवाली और वारंवार मेंडकके समान चलनेवाली नाड़ी तर्ज्जनी और मध्यमा अंगुलीके मध्यमें प्रकट होती है ।।२३।।
वक्रमुत्प्लुत्य चलति धमनी वातपित्ततः ।
सर्पहंसगतिं तद्वद्वातश्लेष्मवतीं वदेत् ॥२४॥
वातपित्तके कोपसे टेढी होती हुई और कूदती हुई नाड़ी चलती है सर्प और हंसके समान चलनेवाली नाड़ी वातकफकी अधिकतासे होती है ।।२४।।
अनामिकायां तर्जन्यां व्यक्ता वातकफे भवेत् ।
वहेद्वक्रं च मन्दं च वातश्लेष्माधिके त्वतः ॥२५॥
वातकफकी अधिकतामें अनामिका और तर्जनी अंगुलीमें नाड़ी प्रकट होती है, वातकफकी अधिकतासे टेढ़ेपने और मंदपनेकी नाड़ी बहती है ॥२५॥
हरिहंसगतिं धत्ते पित्ते श्लेष्मान्विता धरा।
मध्यमानामिकामध्ये स्फुटा पित्तकफेऽधिके ॥२६॥
कफपित्तसे युक्त हुई नाड़ी मेंडक और हंसके समान चलती है, पित्तकफकी अधिकतामें मध्यमा और अनामिकाके मध्यमें नाड़ी प्रकट होती है ॥२६॥
उत्प्लुत्य मन्दं चलति नाडी पित्ते कफेऽधिके ।
काष्ठकुट्टो यथा काष्ठं कुट्टते चातिवेगतः ॥२७॥