पित्तकफकी अधिकतामें कूदकूदके मंद होती हुई नाड़ी चलती है और जैसे खातीचिड़ा (कठफोरा) काष्ठको अतिवेगसे कूटता है तैसे चलती है ॥२७॥
स्थित्वा स्थित्वा तथा नाडी सन्निपाते भवेद्ध्रुवम् ।
अंगुली त्रितयेऽपि स्यात्प्रव्यक्तासन्निपाततः ॥२८॥
सन्निपातमें निश्चय ठहरके ठहरके नाड़ी चलती है और सन्निपातसे तीनों अंगुलियोंमें नाड़ी प्रगट होती है ॥२८॥
स्पन्दते चैकमानेन त्रिंशद्वारं यदा धरा।
स्वस्थाने न तदा नूनं रोगी जीवति नान्यथा ॥२९॥
जो एक स्थानमें नाड़ी तीस (३०) बार फरके तब निश्चय रोगी न जीवता है यह निश्चय जानना ॥२९॥
स्थित्वास्थित्वावहति या सा ज्ञेया प्राणघातिनी।
तस्यमृत्युं विजानीयाद्यस्येदं नाडिलक्षणम् ॥३०॥
जो नाड़ी ठहर ठहरके चलती है वह प्राणोंको नाशनेवाली जान लेना चाहिये जिसकी नाड़ीके ये लक्षण होवें तिसकी मृत्यु जान लेना चाहिये ॥३०॥
मन्दं मन्दं शिथिलशिथिलं व्याकुलं व्याकुलं वा
स्थित्वा स्थित्वा वहति धमनी याति सूक्ष्माच सूक्ष्मा।
नित्यं स्कन्धे स्फुरतिपुनरप्यंगुलीः संस्पृशेद्वा भावैरे-
वंबहुविधतस्सन्निपातादसाध्या ॥३१॥
हौले हौले (धीरे २) और शिथिल शिथिल और व्याकुल व्याकुल होती हुई नाड़ी ठहर ठहरके चले अथवा मिहीन मिहीन हुई नाड़ी कंधेमें फुरे, फिर अंगुलियोंको स्पर्श करे, इन भावोंसे सन्निपातकी नाड़ी असाध्य होती है ॥३१॥
पूर्व पित्तगतिं प्रभञ्जनगतिं श्लेष्माणमाबिभ्रती
स्वस्थानाद्भ्रमणं मुहुर्विदधती चक्राधिरूढेव या।
भीमत्वं दधती कदाचिदपि वा सूक्ष्मत्वमातन्वती
नोसाध्यांधमनींवदंतिमुनयोनाडीगतिज्ञानिनः ॥३२॥