महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-033
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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धृतराष्ट्रेण रात्रौ विदुरानयनम् ।। 1 ।। चिन्तया प्रजागरंगतेन धृतराष्ट्रेण दुर्योधनादिसुखोपायप्रश्ने विदुरेण नीतिकथन पूर्वकं पाण्डवेभ्यो राज्यदानस्य तदुपायत्वकथनम् ।। 2 ।।
वैशंपानय उवाच। | 5-33-1x |
द्वाःस्थं प्राह महाप्राज्ञो धृतराष्ट्रो महीपतिः । | 5-33-1a 5-33-1b |
प्रहितो धृतराष्ट्रेण दूतः क्षत्तारमब्रवीत् । | 5-33-2a 5-33-2b |
एवमुक्तस्तु विदुरः प्राप्य राजनिवेशनम् । | 5-33-3a 5-33-3b |
द्वाःस्थ उवाच। | 5-33-4x |
विदुरोऽयमनुप्राप्तो राजेन्द्र तव शासनात्। | 5-33-4a 5-33-4b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-33-5x |
प्रवेशय महाप्रज्ञं विदुरं दीर्घदर्शिनम् । | 5-33-5a 5-33-5b |
द्वाःस्थ उवाच। | 5-33-6x |
प्रविशान्तःपुरं क्षत्तर्महारादजस्य धीमतः। | 5-33-6a 5-33-6b |
वैशंपायन उवाच। | 5-33-7x |
ततः प्रविश्य विदुरो धृतराष्ट्रनिवेशनम् । | 5-33-7a 5-33-7b |
विदुरोऽहं महाप्राज्ञ संप्राप्तस्तव शासनात्। | 5-33-8a 5-33-8b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-33-9x |
सञ्जयो विदुर प्राप्तो गर्हयित्वा च मां गतः। | 5-33-9a 5-33-9b |
तस्याद्य कुरुवीरस्य न विज्ञातं वचो मया। | 5-33-10a 5-33-10b |
आग्रतो दह्यमानस्य श्रेयो यदनुपश्यसि। | 5-33-11a 5-33-11b |
यतः प्राप्तः सञ्जयः पाण्डवेभ्यो | 5-33-12a 5-33-12b 5-33-12c 5-33-12d |
` तन्मे ब्रूहि विदुर त्वं यथाव- | 5-33-13a 5-33-13b 5-33-13c 5-33-13d |
विदुर उवाच। | 5-33-14x |
अभियुक्तं बलवता दुर्बलं हीनसाधनम् । | 5-33-14a 5-33-14b |
कच्चिदेतैर्महादोषैर्न स्पृष्टोऽसि नराधिप। | 5-33-15a 5-33-15b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-33-16x |
श्रोतुमिच्छामि ते धर्म्यं परं नैश्रेयसं वचः। | 5-33-16a 5-33-16b |
विदुर उवाच। | 5-33-17x |
राजा लक्षणसंपन्नस्त्रैलोक्यस्याधिपो भवेत्। | 5-33-17a 5-33-17b |
विपरीततरश्च त्वं भागधेये न संमतः। | 5-33-18a 5-33-18b |
आनृशंस्यादनुक्रोशाद्धर्मात्सत्यात्पराक्रमात्। | 5-33-19a 5-33-19b |
दुर्योधने सौबले च कर्णे दुःशासने तथा। | 5-33-20a 5-33-20b |
आत्मज्ञानं समारम्भस्तितिक्षा धर्मनित्यता। | 5-33-21a 5-33-21b |
` एकस्माद्वृक्षाद्यज्ञपात्राणि राज- | 5-33-22a 5-33-22b 5-33-22c 5-33-22d |
निषेवते प्रशस्तानि निन्दितानि न सेवते। | 5-33-23a 5-33-23b |
क्रोधो हर्षश्च दर्पश्च ह्रीः स्तम्भो मान्यमानिता। | 5-33-24a 5-33-24b |
यस्य कृत्यं न जानन्ति मन्त्रं वा मन्त्रितं परे। | 5-33-25a 5-33-25b |
यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः। | 5-33-26a 5-33-26b |
यस्य संसारिणी प्रज्ञा धर्मार्थावनुवर्तते। | 5-33-27a 5-33-27b |
यथाशक्ति चिकीर्षन्ति यथाशक्ति च कुर्वते। | 5-33-28a 5-33-28b |
क्षिप्रं विजानाति चिरं श्रृणोति | 5-33-29a 5-33-29b 5-33-29c 5-33-29d |
नाप्राप्यमभिवाञ्छन्ति नष्टं नेच्छन्ति शोचितुम्। | 5-33-30a 5-33-30b |
निश्चित्य यः प्रक्रमते नान्तर्वसति कर्मणः। | 5-33-31a 5-33-31b |
आर्यकर्मणि रज्यन्ते भूतिकर्माणि कुर्वते | 5-33-32a 5-33-32b |
न हृष्यत्यात्मसंमाने नावमानेन तप्यते। | 5-33-33a 5-33-33b |
तत्त्वज्ञः सर्वभूतानां योगज्ञः सर्वकर्मणाम्। | 5-33-34a 5-33-34b |
प्रवृत्तवाक् चित्रकथ ऊहवान्प्रतिभानवान्। | 5-33-35a 5-33-35b |
श्रुतं प्रज्ञानुगं यस्य प्रज्ञा चैव श्रुतानुगा । | 5-33-36a 5-33-36b |
` अर्थं महान्तमासाद्य विद्यामेश्वर्यमेव च। | 5-33-37a 5-33-37b |
अश्रुतश्च समुन्नद्धो दरिद्रश्च महामनाः । | 5-33-38a 5-33-38b |
स्वमर्थं यः परित्यज्य परार्थमनुतिष्ठति। | 5-33-39a 5-33-39b |
अकामान्कामयति यः कामयानान्परित्यजेत्। | 5-33-40a 5-33-40b |
अमित्रं कुरुते मित्रं मित्रं द्वेष्टि हिनस्ति च । | 5-33-41a 5-33-41b |
संसारयति कृत्यानि सर्वत्र विचिकित्सते। | 5-33-42a 5-33-42b |
श्राद्धं पितृभ्यो न ददाति दैवतानि न चार्चति । | 5-33-43a 5-33-43b |
अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते। | 5-33-44a 5-33-44b |
परं क्षिपति दोषेण वर्तमानः स्वयं तथा। | 5-33-45a 5-33-45b |
आत्मनो बलमाज्ञाय धर्मार्थपरिवर्जितम्। | 5-33-46a 5-33-46b |
अशिष्यं शास्ति यो राजन्यश्च शिष्यं न शास्ति च । | 5-33-47a 5-33-47b |
एकः संपन्नमाश्नाति वस्ते वासश्च शोभनम् । | 5-33-48a 5-33-48b |
एकः पापानि कुरुते फलं भुङ्क्ते महाजनः। | 5-33-49a 5-33-49b |
एकं हन्यान्न वा हन्यादिषुर्मुक्तो धनुष्मता। | 5-33-50a 5-33-50b |
एकया द्वे विनिश्चित्य त्रींश्चतुर्भिर्वशे कुरु। | 5-33-51a 5-33-51b |
एकं विषरसो हन्ति शस्त्रेणैकश्च वध्यते। | 5-33-52a 5-33-52b |
एकः स्वादु न भुञ्जीत एकश्चार्थान्न चिन्तयेत्। | 5-33-53a 5-33-53b |
एकमेवाद्वितीयं तद्यद्राजन्नावबुध्यसे। | 5-33-54a 5-33-54b |
एकः क्षमावतां दोषो द्वितीयो नोपपद्यते। | 5-33-55a 5-33-55b |
सोऽस्य दोषो न मन्तव्यः क्षमा हि परमं बलम्। | 5-33-56a 5-33-56b |
क्षमा वशीकृतीर्लोके क्षमया किं न साध्यते। | 5-33-57a 5-33-57b |
अतृणे पतितो वह्निः स्वयमेवोपशाम्यति। | 5-33-58a 5-33-58b |
एको धर्मः परं श्रेयः क्षमैका शान्तिरुत्तमा । | 5-33-59a 5-33-59b |
द्वाविमौ ग्रसते भूमिः सर्पो बलिशयानिव। | 5-33-60a 5-33-60b |
द्वे कर्मणी नरः कुर्वन्नस्मिँल्लोके विरोचते । | 5-33-61a 5-33-61b |
द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र परप्रत्ययकारिणौ । | 5-33-62a 5-33-62b |
द्वाविमौ कण्टकौ तीक्ष्णौ शरीरपरिशोषिणौ। | 5-33-63a 5-33-63b |
द्वावेव न विराजेते विपरीतेन कर्मणा । | 5-33-64a 5-33-64b |
द्वाविमौ पुरुषौ राजन्स्वर्गस्योपरि तिष्ठतः। | 5-33-65a 5-33-65b |
न्यायागतस्य द्रव्यस्य बोद्धव्यौ द्वावतिक्रमौ । | 5-33-66a 5-33-66b |
द्वावभ्यसि निवेष्टव्यौ गले बध्वा दृढां शिलाम् । | 5-33-67a 5-33-67b |
द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र सूर्यमण्डलभेदिनौ। | 5-33-68a 5-33-68b |
त्रयो न्याया मनुष्याणां श्रूयन्ते भरतर्षभ । | 5-33-69a 5-33-69b |
त्रिविधाः पुरुषा राजन्नुत्तमाधममध्यमाः । | 5-33-70a 5-33-70b |
त्रय एवाधना राजन्भार्या दासस्तथा सुतः। | 5-33-71a 5-33-71b |
हरणं च परस्वानां परदाराभिमर्शनम् । | 5-33-72a 5-33-72b |
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः । | 5-33-73a 5-33-73b |
वरप्रदानं राज्यं च पुत्रजन्म च भारत। | 5-33-74a 5-33-74b |
भक्तं च भजमानं च तवास्मीति च वादिनम् । | 5-33-75a 5-33-75b |
चत्वारि राज्ञा तु महाबलेन | 5-33-76a 5-33-76b 5-33-76c 5-33-76d |
चतवारि ते तात गृहे वसन्तु | 5-33-77a 5-33-77b 5-33-77c 5-33-77d |
चत्वार्याह महाराज साद्यस्कानि बृहस्पतिः। | 5-33-78a 5-33-78b |
देवतानां च सङ्कल्पमनुभावं च धीमताम्। | 5-33-79a 5-33-79b |
चत्वारि कर्माण्यभयंकराणि | 5-33-80a 5-33-80b 5-33-80c 5-33-80d |
पञ्चाग्नयो मनुष्येण परिचर्याः प्रयत्नतः। | 5-33-81a 5-33-81b |
पञ्चैव पूजयँल्लोके यशः प्राप्नोति केवलम्। | 5-33-82a 5-33-82b |
पञ्च त्वाऽनुगमिष्यन्ति यत्र यत्र गमिष्यसि। | 5-33-83a 5-33-83b |
पञ्चेन्द्रियस्य मर्त्यस्य छिद्रं चेदेकमिन्द्रियम्। | 5-33-84a 5-33-84b |
षड्दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता। | 5-33-85a 5-33-85b |
षडिमान्पुरुषो जह्याद्भिन्नां नावमिवार्णवे। | 5-33-86a 5-33-86b |
अरक्षितारं राजानं भार्यां चाप्रियवादिनीम् । | 5-33-87a 5-33-87b |
षडेव तु गुणाः पुंसा न हातव्याः कदाचन। | 5-33-88a 5-33-88b |
अर्थागमो नित्यमरोगिता च | 5-33-89a 5-33-89b 5-33-89c 5-33-89d |
षण्णामात्मनि नित्यानामैश्वर्यं योऽधिगच्छति। | 5-33-90a 5-33-90b |
षडिमे षट्सु जीवन्ति सप्तमो नोपलभ्यते। | 5-33-91a 5-33-91b |
प्रमदाः कामयानेषु यजमानेषु याजकाः । | 5-33-92a 5-33-92b |
षडिमानि विनश्यन्ति मुहूर्तमनवेक्षणात्। | 5-33-93a 5-33-93b |
षडेते ह्यवमन्यन्ते नित्यं पूर्वोपकारिणम् । | 5-33-94a 5-33-94b |
नारीं विगतकामास्तु कृतार्थाश्च प्रयोजकम् । | 5-33-95a 5-33-95b |
आरोग्यमानृण्यमविप्रवासः | 5-33-96a 5-33-96b 5-33-96c 5-33-96d |
ईर्षुर्धृणी नसन्तुष्टः क्रोधनो नित्यशङ्कितः। | 5-33-97a 5-33-97b |
सप्त दोषाः सदा राज्ञा हातव्या व्यसनोदयाः। | 5-33-98a 5-33-98b |
स्त्रियोऽक्षा मृगया पानं वाक्पारुष्यं च पञ्चमम्। | 5-33-99a 5-33-99b |
अष्टौ पूर्वनिमित्तानि नरस्य विनशिष्यतः। | 5-33-100a 5-33-100b |
ब्राह्मणस्वानि चादत्ते ब्राह्मणांश्च जिघांसति। | 5-33-101a 5-33-101b |
नैनान्स्मरति कृत्येषु याचितश्चाभ्यसूयति। | 5-33-102a 5-33-102b |
अष्टाविमानि हर्षस्य नवनीतानि भारत। | 5-33-103a 5-33-103b |
समागमश्च सखिभिर्महांश्चैव धनागमः । | 5-33-104a 5-33-104b |
समये च प्रियालापः स्वयूथ्येषु समुन्नतिः । | 5-33-105a 5-33-105b |
अष्टौ गुमाः पुरुषं दीपयन्ति | 5-33-106a 5-33-106b 5-33-106c 5-33-106d |
नवद्वारमिदं वेश्म त्रिस्थूणं पञ्चसाक्षिकम्। | 5-33-107a 5-33-107b |
दश धर्मं न जानन्ति धृतराष्ट्र निबोध तान्। | 5-33-108a 5-33-108b |
त्वरमाणश्च लुब्धश्च भीतः कामी च ते दश। | 5-33-109a 5-33-109b |
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। | 5-33-110a 5-33-110b |
यः काममन्यू प्रजहाति राजा | 5-33-111a 5-33-111b 5-33-111c 5-33-111d |
जानाति विश्वासयितुं मनुष्यान् | 5-33-112a 5-33-112b 5-33-112c 5-33-112d |
सुदुर्बलं नावजानाति कंचि- | 5-33-113a 5-33-113b 5-33-113c 5-33-113d |
प्राप्याप.. न व्यथते कदाचि- | 5-33-114a 5-33-114b 5-33-114c 5-33-114d |
अनर्थकं विप्रवासं गृहेभ्यः | 5-33-115a 5-33-115b 5-33-115c 5-33-115d |
न संरम्भेणारभते त्रिवर्ग- | 5-33-116a 5-33-116b 5-33-116c 5-33-116d |
न योऽभ्यसूयत्सयनुकम्पते च | 5-33-117a 5-33-117b 5-33-117c 5-33-117d |
यो नोद्धतं कुरुते जातु वेषं | 5-33-118a 5-33-118b 5-33-118c 5-33-118d |
न वैरमुद्दिपयति प्रशान्तं | 5-33-119a 5-33-119b 5-33-119c 5-33-119d |
न स्वे सुखे वै कुरुते प्रहर्षं | 5-33-120a 5-33-120b 5-33-120c 5-33-120d |
देशाचारान्समयाञ्जातिधर्मान् | 5-33-121a 5-33-121b 5-33-121c 5-33-121d |
दम्भं मोहं मत्सरं पापकृत्यं | 5-33-122a 5-33-122b 5-33-122c 5-33-122d |
दमं शौचं दैविकं मङ्गलानि | 5-33-123a 5-33-123b 5-33-123c 5-33-123d |
समैर्विवाहं कुरुते न हीनैः | 5-33-124a 5-33-124b 5-33-124c 5-33-124d |
मितं भुङ्क्ते संविभज्याश्रितेभ्यो | 5-33-125a 5-33-125b 5-33-125c 5-33-125d |
चिकीर्षितं विप्रकृतं च यस्य | 5-33-126a 5-33-126b 5-33-126c 5-33-126d |
यः सर्वभूतप्रशमे निविष्टः | 5-33-127a 5-33-127b 5-33-127c 5-33-127d |
य आत्मनाऽपत्रपते भृशं नरः | 5-33-128a 5-33-128b 5-33-128c 5-33-128d |
वने जाताः शापदग्धस्य राज्ञः | 5-33-129a 5-33-129b 5-33-129c 5-33-129d |
प्रदायैषामुचितं तातराज्यं | 5-33-130a 5-33-130b 5-33-130c 5-33-130d |
।। इति श्रीमन्महाभारते उद्योगपर्वणि |
5-33-5 अकल्पो न किंतु कल्पः समर्थ एव । सर्वदा विदुरसंदर्शनं मय अप्रत्याख्येयमित्यर्थः ।। 5-33-10 प्रजागरं निद्राया अभावम् ।। 5-33-12 यतः यदा प्राप्तः सञ्जयस्तदारभ्येत्यर्थः। प्रचिन्ता प्रकृष्टा चिन्ता ।। 5-33-14 अभियुक्तमित्यर्धोपात् एकः त्रयोऽन्ये च प्रदागरावेशभाजनानि ।। 5-33-15 गृद्ध्यन् लिप्सावान् ।। 5-33-17 प्रेष्यः प्रकर्षेण एषणीयः प्रार्थ्य इतियावत् । ते त्वया प्रेषितो वनमिति शेषः ।। 5-33-18 विपरीतः राजलक्षणहीनः सर्वेषां द्वेष्यः । भागधेये राज्यांशे । अर्चिषां नेत्ररश्मीनां प्रक्षयात्। न संमतस्त्वं धर्मात्मापि सन्निति उपहासः ।। 5-33-19 आनृशंस्यात् क्रूरत्वाभावात्। अनुक्रोशात् दयालुत्वात्। तितिक्षते युधिष्ठिर इति शेषः ।। 5-33-20 एतेष्विति। एतेषामधीनो भूत्वेत्यर्थः ।। 5-33-21 एतेषु पाण्डित्यं नास्तीति वक्तुं पाण्डितलक्षणान्याह आत्मज्ञानमित्यादिना। आत्मज्ञानं शास्त्रीयापेक्षम्। समारम्भः शक्त्यपेक्षः । तितिक्षा वैराग्यापेक्षा। धर्मनित्यता श्रद्धापेक्षा। एतानि अयथाभूतानि मूढान् पुरुषार्थात् भ्रंशयन्ति नतु पण्डितानित्यर्थः ।। 5-33-23 अनास्तिकः परलोकाद्यस्तीति जानन्। श्रद्दधानः श्रद्धा गुरुवेदवाक्यादिषु फलावश्यंभावनिश्चयस्तद्वान् ।। 5-33-24 दर्पः परावज्ञानम्। स्तम्भः असन्नतिः। मान्यमानिता मान्यं मानार्हं आत्मानं मन्यत इति मान्यमानी तस्य भावस्तत्ता ।। 5-33-27 संसारिणी स्वभावतोऽनवस्तितापि कामात् ऐहिक सुखात् उभयलोकसुखावहं धर्ममर्थं वृणीते स पण्डितः। कामो धर्मार्थापेक्षया निकृष्ट इत्यर्थः। कामादिति। यस्तु कामं त्यक्त्वा अर्थं वृणीते सः अर्थार्थी मोक्षादेव सर्वं अर्थं विन्दति ज्ञानफले मोक्षे कृत्स्नस्यार्थस्यान्तर्भावात् स जनकादितुल्यः अतः पण्डित उच्यते ।। 5-33-29 चिरं शृणोति ज्ञानदार्ढ्याय असंपृष्टः यथावदपृष्टः। व्युपयुङ्क्ते वाग्व्ययं करोति। परार्थे विषये प्रज्ञानं चिह्नम् ।। 5-33-31 निश्चित्य स्वयत्नमाध्यत्वम्। कर्मणः अन्तर्मध्ये न वसति नोपरमते किंतु समापयत्येव । अवन्ध्यकालः सर्वदा सप्रयोजनमेव कर्माचरन् ।। 5-33-32 आर्याः शिष्टाःक तद्योग्यकर्मणि । भूरितैश्वर्यं तत्प्राप्त्यर्थं कर्माणि ।। 5-33-34 योगो रचनाप्रकारः। उपायस्तदर्थसाग्री। मनुष्याणां मध्ये स नरः पण्डितः ।। 5-33-35 प्रवृत्तवाक् अकुण्ठितवचनः । चित्रकथो लोककथाभिज्ञः । ऊहस्तर्कः। प्रतिभानं तत्कालस्फूर्तिः ।। 5-33-36 प्रज्ञानुगं बुद्धिवश्यम्। श्रुतानुगा शास्त्रानुसारिणी ।। 5-33-38 महामनाः अधिकेच्छावान्। अकर्मणा हीनकर्मणा द्यूतादिनेत्यर्थः ।। 5-33-42 संसारयति भृत्यादिद्वारा प्रवर्तयति ।। 5-33-46 नैष्कर्म्यात् अयत्नतः।। 5-33-47 कदर्यं अदातारम् ।। 5-33-51 एकया बुद्द्या। द्वे कार्याकार्ये विनिश्चित्य सम्यगवधार्य। त्रीन् मित्रोदासीनशत्रून्। चतुर्भिः सामदानभेददण्डैः। मित्रं साम्नैव दानभेदाभ्यामुदासीनम् सर्वैः शत्रुं वशीकुरु । पञ्च इन्द्रियाणि जित्वा। षड्विदित्वा संधिविग्रहादीन् ज्ञात्वा। सप्त हित्वा-स्त्रियोऽक्षा मृगया पानं वाक्पारुष्यं च पञ्चमम्। महच्च दण्डपारुष्यमर्थदूषणमेव चेति सप्त हेयानि त्यक्त्वा सुखी भव ।। 5-33-54 सत्यं यथार्थभाषणम्। पारावारस्य समुद्रस्य ।। 5-33-69 यद्धं कनीयान्। भेददाने मध्यमः। साम उत्तमः 5-33-71 त्वयिसति त्वत्पुत्रोऽधनोऽतस्त्वमेव पाण्डवानां राज्यं दातुं प्रभुरसीत्यर्थः ।। 5-33-75 शरणं गृहम्। विषमेपि संकटेपि ।।
5-33-76 दीर्घसूत्रैः क्षिप्रसाध्ये कार्ये चिरं कुर्वद्धिः । अलसैः करिष्यामीति कालगमकैः। चारणैः स्तावकैः। अरणैरितिच्छेदो कवा। रणविरोधिभिर्द्यूताद्यासक्तैरित्यर्थः ।। 5-33-77 वृद्धः कुलधर्मानुपदिशति। कुलीनः शिशून् आचारं ग्राहयति। सखा हितं वदति। भगिनी धनं रक्षति ।। 5-33-78 साद्यस्कानि सद्यःफलानि ।। 5-33-79 देवताः स्वर्गभाजः। स्वर्गपदार्थश्च- यन्न दुःखेन संभिन्नं न च ग्रस्तमनन्तरम्। अभिलाषोपनीतं च तत्सुखं स्वःपदास्पदम् इत्येवंरूपः। अतस्ते सत्यसंकल्पाः। धीमतामगस्त्यादीनामनुभावं समुद्रपानादिप्रभावम्। तेपि देवतुल्या इत्यर्थः। विनयोपि गुरुप्रसादकरत्वेन सद्यःफलः। विनाशहेतुः कर्मापि चौर्यादिकं तच्च त्वय्येवास्ति। तव सर्वं कर्म मानार्थमेवेति भाः। पापकर्मणां विनाशनं विनाशयितुः सद्यःफलम् ।। 5-33-82 पितॄन् अग्निष्वात्तादीन् गोत्रप्रवर्तकानृषींश्च । मनुष्यान् पित्रादीन् ।। 5-33-83 त्वा त्वाम्। उपजीव्याः गुरवः । इह लोके साधिता मित्रादयाः। इह परलोके जन्मान्तरे वा स्वं स्वं कार्यं कुर्वन्तीत्यर्तः ।। 5-33-84 दृतेश्चर्ममयाज्जलपात्रात् 5-33-88 गोपालस्य ग्रामे वासे वनवाससाध्यस्य गोरक्षणस्याभावः। नापितस्य वने वासे ग्रामे तत्कार्याभाव इति भावः ।। 5-33-90 षण्णामिति। आत्मनि चित्ते नित्यानां षण्णाम्- कामक्रोधौ शोकमोहौ मदमानौ च षट्पदीत्युक्तानाम्। ऐश्वर्यं वशित्वम् ।। 5-33-95 नातुराः अरोगाः ।। 5-33-96 स्वप्रत्यया स्वनिश्चयपूर्विका वृत्तिवर्तनं नतु गतानुगतिकयेत्यर्थः ।। 5-33-100 द्वेष्टि मनसानिष्टं चिन्तयति। विरुध्यते कर्मणा ।। 5-33-104 सन्निपातः समरतं (न्नगर्भः) ।। 5-33-107 त्रिस्थूणं वातपित्तश्लेष्माणः स्थूणायरू...। पञ्च साक्षिवदुदासीनाः शब्दादयो ग्राह्या यस्मिन्। क्षेत्रज्ञाधि ....... वीवाधिष्ठितम् ।। 107 ।। 5-33-108 मत्ते मद्यादिना। प्रमत्तो विषयान्तरासक्तयाऽनवहितः। उन्मत्ते धातुदोषात् ।। 5-33-112 मात्रा उपराधानुसारेण दण्डप्रमाणम् । ब्राह्मणादौ अपराधस्य क्षगां च ज...ति ।। 5-33-113 युक्तः छि...पेक्षणि हितः ।। 113 ।। 5-33-114 संभ्य...क्रोध न च स्त्रियोऽर्थे यतते विवादं इति कo पाठः। 5-33-116 न ........इति । खo पाठः। मात्रार्थे अल्पार्थे इति ......।। 5-33-11. प्रातिभाव्यं प्रतिकूलो भावः चित्ताभिप्राया ......... प्रातिभाव्यं विरोधम्। अत्याह अतिकम्य ब्रवीति ।। 5-33-122 दम्भं परवच्चनेच्छया धर्मानुष्ठानम् ।। 5-33-127 जात्य अभिजातः उत्तमे आकरे जातः ।। 5-33-128 आत्मना अपत्रपते परैरज्ञातेऽपि स्वव्यलीके स्वयमेव लज्जते ।।
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