महाभारतम्-04-विराटपर्व-044
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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उत्तरेण बृहन्नलाया अर्जुनत्वविज्ञानेन तंप्रत्यज्ञानमूलकभूतपूर्वस्वापराधक्षमापनम् ।। 1 ।। अर्जुनेनोत्तरंप्रति स्वस्य क्लैब्यप्राप्तिहेतुकथनम् ।। 2 ।। तथोत्तरस्य सारथीकरणापूर्वकं रथारोहणेन रणायाभियानम् ।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 4-44-1x |
ततः पार्थं स वैराटिः प्राञ्जलिस्त्वभ्यवादयत्। | 4-44-1a 4-44-1b |
दिष्ट्या त्वां पार्थ पश्यामि स्वागतं ते धनंजय । | 4-44-2a 4-44-2b |
यदज्ञानादवोचं त्वां प्रमादेन नरोत्तम। | 4-44-3a 4-44-3b |
यतस्त्वया कृतं पूर्वं चित्रं कर्म सुदुष्करम्। | 4-44-4a 4-44-4b |
दासोऽहं ते भविष्यामि पश्य मामनुकम्पया ।। | 4-44-5a |
या प्रतिज्ञा कृता पूर्वं तव सारथ्यकारणात्। | 4-44-6a 4-44-6b |
देवेन्द्रतनयस्येह सारथिः स्यां महामृधे । | 4-44-7a 4-44-7b |
प्रतिज्ञा मम संपूर्णा तव सारथ्यकारणात् । | 4-44-8a 4-44-8b |
आस्थाय विपुलं वीर रथं सारथिना मया। | 4-44-9a 4-44-9b |
अर्जुन उवाच। | 4-44-10x |
प्रीतोस्मि राजपुत्राद्य न भयं विद्यते तव। | 4-44-10a 4-44-10b |
स्वस्थो भव महान्युद्धे पश्य मां शत्रुभिः सह । | 4-44-11a 4-44-11b |
गाण्डीवं देवदत्तं च शरान्कनकभूषणान्। | 4-44-12a 4-44-12b 4-44-12c |
अहं वै कुरुभिर्योत्स्ये मोक्षयिष्यामि ते पशून् । | 4-44-13a 4-44-13b |
संकल्पागाधपरिधं बाहुप्राकारतोरणम्। | 4-44-14a 4-44-14b |
ज्याक्षेपनिनदारावं नेमीनिनददुन्दुभिः । | 4-44-15a 4-44-15b 4-44-15c |
अधिष्ठितो मया सङ्ख्ये रथो गाण्डीवधन्विना । | 4-44-16a 4-44-16b |
उत्तर उवाच। | 4-44-17x |
बहुना किं प्रलापेन शृणु मे परमं वचः। | 4-44-17a 4-44-17b |
यमवायुकुबेरेभ्यो द्रोणभीष्मशतादपि । | 4-44-18a 4-44-18b 4-44-18c |
इदं तु चिन्तयन्नेव परिमुह्यामि केवलम्। | 4-44-19a 4-44-19b |
एवं वराङ्गरूपस्य लक्षणैः सूचितस्य च। | 4-44-20a 4-44-20b |
मन्ये त्वां क्लीबरूपेण चरन्तं शूलपाणिनम्। | 4-44-21a 4-44-21b |
अर्जुन उवाच। | 4-44-22x |
भ्रातुर्नियोगाञ्ज्येष्ठस्य संवत्सरमिदं व्रतम्। | 4-44-22a 4-44-22b |
नास्मि क्लीबो महाबाहो परवान्धर्मसंयुतः । | 4-44-23a 4-44-23b |
पुराऽहमाज्ञया भ्रातुर्ज्येष्ठस्यास्मि सुरालयम्। | 4-44-24a 4-44-24b |
नृत्यन्तीं परमं रूपं बिभ्रतीं वज्रिसन्निधौ । | 4-44-25a 4-44-25b |
रात्रौ समागता मह्यं शयनं रन्तुमिच्छया। | 4-44-26a 4-44-26b |
सा च मामशपत्क्रुद्धा शिखण्डी त्वं भवेति वै। | 4-44-27a 4-44-27b |
उपकारो भवेत्तुभ्यमज्ञातवसतौ पुरा। | 4-44-28a 4-44-28b |
तदिदं समनुप्राप्तं व्रतं चीर्णं मयाऽनघ । | 4-44-29a 4-44-29b |
उत्तर उवाच। | 4-44-30x |
परमोऽनुग्रहो मेऽद्य यत्प्रतर्को न मे वृथा। | 4-44-30a 4-44-30b |
सहायवानस्मि रणे युद्ध्येयममरैरपि । | 4-44-31a 4-44-31b |
अहं ते संग्रहीष्यामि हयाञ्शत्रुनिर्बहण। | 4-44-32a 4-44-32b |
दारुको वासुदेवस्य यथा शक्रस्य मातलिः। | 4-44-33a 4-44-33b |
अश्वा ह्येते महाबाहो तवैवाहवदुर्जयाः। | 4-44-34a 4-44-34b |
यस्य यातेन पश्यन्ति भूमौ क्षिप्तं पदंपदम्। | 4-44-35a 4-44-35b |
योऽयं हयो धुर्यवरो वामां वहति शोभनः। | 4-44-36a 4-44-36b |
योऽयं वहति वै पार्ष्णिं दक्षिणामञ्चितोद्यतः । | 4-44-37a 4-44-37b |
योऽयं काञ्चनसन्नाहो वामं वहति शोभनः । | 4-44-38a 4-44-38b |
त्वामेवायं रथो वोढुं संग्रामेऽर्हति धन्विनम् । | 4-44-39a 4-44-39b 4-44-39c |
वैशंपायन उवाच। | 4-44-40x |
ततो रथादवस्कन्द्य वीर्यवानरिमर्दनः। | 4-44-40a 4-44-40b |
ततो विमुच्य बाहुभ्यां सङ्खचूडानि पाण्डवः । | 4-44-41a 4-44-41b |
इन्द्रदत्ते च ते दिव्ये उद्धृत्यामुच्य कुण्डले । | 4-44-42a 4-44-42b |
अथासौ प्राङ्मुखो भूत्वा शुचिः प्रयतमानसः। | 4-44-43a 4-44-43b |
ऊचुश्च पार्थं सर्वाणि प्राञ्जलीनि नृपात्मजम्। | 4-44-44a 4-44-44b |
प्रणिपत्य ततः पार्थः समालभ्य च पाणिना। | 4-44-45a 4-44-45b |
प्रतिगृह्य ततोऽस्त्राणि प्रह्लष्टवदनोऽभवत् । | 4-44-46a 4-44-46b |
तस्य विक्षिप्यमाणस्य धनुषोऽभून्महास्वनः । | 4-44-47a 4-44-47b |
सनिर्घाताऽभवद्भूमिर्दिक्षु वायुर्ववौ भृशम्। | 4-44-48a 4-44-48b |
तं शब्दं कुरवो राजन्विस्फोटमशनेरिव। | 4-44-49a 4-44-49b |
यथेन्द्रो व्याक्षिपद्भीमं विस्फोटमशनेर्भुवि । | 4-44-50a 4-44-50b |
महाशनिमहाशब्दसदृशो ज्यास्वनो महान् । | 4-44-51a 4-44-51b |
उत्तर उवाच। | 4-44-52x |
एकस्त्वं पाण्डवश्रेष्ठ बहूनोतान्महारथान्। | 4-44-52a 4-44-52b |
असहायो।सि कोन्तेय ससहायाश्च कौरवाः । | 4-44-53a 4-44-53b |
वैशंपायन उवाच। | 4-44-54x |
उवाच पार्थो मा भैषीः प्रहस्य स्वनवत्तदा ।। | 4-44-54a |
युध्यमानस्य मे वीर गन्धर्वैः सुमहाबलैः । | 4-44-55a 4-44-55b |
तथा प्रतिभये तस्मिन्देवदानवसंकुले। | 4-44-56a 4-44-56b |
निवातकवचैः सार्धं पौलोमैश्च महाबलैः । | 4-44-57a 4-44-57b |
स्वयंवरे तु पाञ्चाल्या राजभिः सह संयुगे। | 4-44-58a 4-44-58b |
उपजीव्य गुरुं द्रोणं शुक्रं वैश्रवणं यमम्। | 4-44-59a 4-44-59b 4-44-59c |
रथं वाहय मे शीघ्रं व्येतु ते मानसो ज्वरः ।। | 4-44-60a |
।। इति श्रीमन्महाभारते विराटपर्वणि |
विराटपर्व-043 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | विराटपर्व-045 |