महाभारतम्-04-विराटपर्व-010
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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भीमेन सूदवेषपरिग्रहेण विराटसभाप्रवेशः ।। 1 ।।
विराटेन भीमस्य पाकाधिकारे नियोजनम् ।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच । | 4-10-1x |
अथापरस्यां दिशि भीमदर्शनो वृकोदरोऽदृश्यत सिंहविक्रमः। | 4-10-1a 4-10-1b |
त्वचं च गोचर्ममयीं सुमर्दितां समुक्षितां पानकरागषाडवैः । | 4-10-2a 4-10-2b |
गम्भीररूपः परमेण तेजसा रविर्यथा लोकमिमं प्रकाशयन्। | 4-10-3a 4-10-3b |
सभागतो वारणयूथपोपमस्तमिस्रहा रात्रिमिवावभासयन्। | 4-10-4a 4-10-4b |
तमाव्रजन्तं गजयूथपोपमं निरीक्षमाणो नवसूर्यवर्चसम्। | 4-10-5a 4-10-5b |
तमेकवस्त्रं परसैन्यवारणं सभाऽविदूरान्नृपतिर्नृपात्मजम्। | 4-10-6a 4-10-6b |
अथाब्रवीन्मात्स्यपतिः सभागतान् भृशातुरोष्णं परिनिश्वसन्निव । | 4-10-7a 4-10-7b |
को वा विजानाति पुराऽस्य दर्शनं मृगेन्द्रशार्दूलगतिं हि मामकः। | 4-10-8a 4-10-8b |
राजश्रिया ह्येष विभाति राजवद्विरोचते रुक्मगिरिप्रभोपमः। | 4-10-9a 4-10-9b |
रूपेण यश्चाप्रतिमो ह्ययं महान्महीमिमां शत्रः इवाभिपालयेत्। | 4-10-10a 4-10-10b |
वैशंपायन उवाच। | 4-10-11x |
वितर्कमाणस्य च तस्य पाण्डवः सभामतिक्रम्य वृकोदरोऽब्रवीत्। | 4-10-11a 4-10-11b |
ततो नृपं वाक्यमुवाच पाण्डवो यथाऽनुपूर्व्यात्कृपयान्वितोत्तरम्। | 4-10-12a 4-10-12b |
नरेन्द्र शूद्रोस्मि चतुर्थवर्णभाग्गुरूपदेशात्परिचारकर्मकृत्। | 4-10-13a 4-10-13b 4-10-13c |
वैशंपायन उवाच । | 4-10-14x |
तमब्रवीन्मत्स्यपतिः प्रहृष्टवत्प्रियं प्रगल्भं मधुरं विनीतवत्। | 4-10-14a 4-10-14b |
हुताशनाशीविषतुल्यतेजसो न कर्म ते योग्यमिदं महानसे । | 4-10-15a 4-10-15b |
अनीककर्णाग्रधरो ध्वजी रथी भवाद्य मे वारणवाहिनीपतिः। | 4-10-16a 4-10-16b |
भीम उवाच । | 4-10-17x |
चतुर्थवर्णोस्म्यहमुग्रशासन न वै वृणे त्वामहमीदृशं पदम्। | 4-10-17a 4-10-17b |
युधिष्ठिरस्यास्मि महानसे पुरा बभूव सर्वप्रभुरन्नपानदः। | 4-10-18a 4-10-18b |
त्वमन्नसंस्कारविधौ प्रशाधि मां भवामि तेऽहं नरदेव सूपकृत् । | 4-10-19a 4-10-19b |
गजांश्च सिंहांश्च समेयिवानहं सदा करिष्यामि तवानघ प्रियम्। | 4-10-20a 4-10-20b |
स्वकर्मतुष्टाश्च वयं नराधिप प्रशाधि मां सूदपदे यदीच्छसि। | 4-10-21a 4-10-21b |
वैशंपायन उवाच। | 4-10-22x |
तमेवमुक्ते वचने नराधिपः प्रत्यब्रवीन्मत्स्यपतिः प्रहृष्टवत्। | 4-10-22a 4-10-22b |
त्रिलोकपालो हि यथा विराजसे तथाऽद्य मे विष्णुरिवातिरोचसे। | 4-10-23a 4-10-23b 4-10-23c |
तथा स भीमो विहितो महानसे विराटराजस्य बभूव वै प्रियः। | 4-10-24a 4-10-24b |
।। इति श्रीमन्महाभारते विराटपर्वणि |
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