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भोजप्रबन्धः


 हाउ-हाउ' शब्द करने से वहां कौए आ गये। उनमें एक कौआ बड़े जोर से काँव काँव' करने लगा। उसे सुन बूढ़े ब्राह्मण की तरुणी पत्नी जैसे डर कर ' हाथ को अपनी छाती पर रख चिल्ला पड़ी--'हाय मैया!' . '

 ततो ब्राह्मणः प्राह-'प्रिये साधुशीले, किमर्थं बिभेषि---इति। सा प्राह-'नाथ! मादृशीनां पतिव्रतास्त्रीणां करध्वनिवर्णन सह्यम् । 'साधुशीले, तथा भवेदेव' इति विप्र आह।

 तो ब्राह्मण वोला-'बली-भोली प्यारी, क्यों डर रही हो वह बोली- स्वामी, मुझ जैसी पतिव्रत्ता स्त्रियों से कर्कश शब्द सुनना सहा नहीं जाता, ब्राह्मण ने कहा-~'हे सुचरिते, ऐसा तो होता ही रहता है।'

 ततो राजा तच्चरितं सर्वं दृष्ट्वा व्यचिन्तयत् - अहो, इयं तरुणी दुःशीला नूनम् । यतो निर्व्याजं बिभेति । स्वपातिव्रत्यं स्वयमेव कीर्तयति च । नूनमियं निर्भीका सती अत्यन्तं दारुणं कर्म रात्रौ करोत्येव । एवं निश्चित्त्य राजा तत्रैव रात्रावन्तर्हित एवातिष्ठत् ।।

 तो उसका सारा आचरण देख कर राजा ने विचारा-'अरे, निश्चय ही यह तरुणी दुष्ट चरित्र की है; क्योंकि अकारण ही डर रही है और अपने पातिव्रत का स्वयम् ही कीर्तन कर रही है । निश्चय ही यह निर्भय होकर रात में अत्यंत कठोर कर्म करती ही होगी।' ऐसा निश्चय करके राजा वहीं रात को छिप कर रह गया।

 अथ निशीथे भर्तरि सुप्ते सा मांसपेटिकां वेश्याकरेण वाहयित्वा नर्मदातीरमगच्छत् । राजाप्यात्मानं गोपयित्वानुुगच्छति स्म । ततः सा नर्मदां प्राप्य तत्र समागतानां ग्राहाणां मांसं दत्त्वा नदी तीर्त्वा परतीरस्थेन शूलाग्रारोपितेन स्वमनोरमेण सह रमते स्म ।

 इसके बाद रात में पति के सो जाने पर वह मांस की पिटारी को एक वेश्या के हाथों उठवाकर नर्मदा के किनारे पहुंची। अपने को छिपाये राजा ने भी उसका पीछा किया। तदनंतर वह नर्मदा में पैठी और वहाँ आये मगर- मच्छों को मांस देकर नदी पार कर दूसरे किनारे पर स्थित सूली की नोक पर चढ़ाये गये अपने मनचीते पुरुष के साथ रमण करने लगी। .