तत आत्मनि राज्ञोऽवज्ञां ज्ञात्वा कालिदासो बल्लाल देशं गत्वा
तद्देशाधिनाथं प्राप्य प्राह --'देव, मालवेन्द्रस्य भोजस्यावज्ञया त्वद्देशं.
प्राप्तोऽहं कालिदास नामा कविः' इति । ततो राजा तमासन उपवेश्य
प्राह-सुकवे, भोजसमाया इहागतैः पण्डितैः समुदितःशतशस्ते महिमा ।
सुक, त्वां सरस्वती वदन्ति । ततः किमपि पठ' इति ।
तो अपने प्रति राजा की उपेक्षा जानकर कालिदास बल्लालदेश चला गया और वहाँ के स्वामी के पास पहुँच बोला-'महाराज, मालव के स्वामी भोज की उपेक्षा के कारण आपके देश में आया मैं कालिदास नामक कवि हूँ। तो राजा ने उसे आसन पर बैठाकर कहा-'हे सुकवि, भोज की सभा से यहाँ आये पंडितों ने आपके महिमान का शतशः वर्णन किया है । सुकवे, वे आपको सरस्वती कहते हैं सो कुछ पढिए।'
ततः कालिदास आह- |
ततस्तस्मै प्रत्यक्षरं लक्ष ददौ।
तो कालिदास ने कहा- हे बल्लाल भूमि के पालक, आपके शत्रुओं के नगर में घूमती किरात स्त्रियाँ बिखरे रत्नों को लेकर और उन्हें बड़े-बड़े कत्थे ( खैर ) के अंगार समझ व्याकुल हो उन पर चंदन की लकड़ी के टुकड़े रखकर आँखें आधी मूंद कर उन पर फूँके मारती हैं; उन चंदन गंधी निःश्वासों से खिंचकर उन पर भौरों के समूह आ जाते हैं और किरातियां उन्हें धुआँ समझने. लगती हैं।
तो राजा ने उन्हें प्रत्येक अक्षर पर लक्ष मुद्राएँ दी ।
ततः कदाचिद्बल्लालराजा कालिदासं पप्रच्छ-'सुकवे, एकशिला- नगरी व्यावर्णय' इति । ततः कविराह-
'अपाङ्गपातरपदेशपूर्वै रेणीशामेकशिलानगर्याम् । |