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भोजप्रवन्धः


 तीर्थ वे बुधजन जाते हैं, जो शिव से दूर रहते हैं । हे भोज, गौरी पति शिव जिसके चित्त में विराजित है, वही परम तीर्थ है।'

 ततो विद्वत्स काशी गतेषु राजा कदाचित्सभायां कालिदासं पृच्छति। स्म-कालिदास, अद्य किमपि श्रुतं किं त्वया' इति । स आह--

मेरौ मन्दरकन्दरासु हिमवत्सानौ महेन्द्राचले.
कैलासस्य शिलातलेषु मलयप्राग्भारभागेष्वपि । ।
सह्याद्रावपि तेषु तेषु बहुशो भोज श्रुतं ते मया
लोकालोकविचारचारणगणैरुद्रीयमानं यशः' ।। २७५ ॥

ततश्चमत्कृतो राजा प्रत्यक्षरं लक्षं ददौ।

 तत्पश्चात् विद्वानों के काशी चले जाने पर एक दिन सभा में राजा.ने कालिदास से पूछा--'कालिदास, आज तुमने कुछ सुना ?' उसने कहा-

 सुमेरु पर, मंदराचल की कंदराओं में, हिमालय के शिखरों पर, महेंद्र पर्वत पर, कैलास के शिलातलों पर, मलयाचल की ऊँची चोटियों और सह्याद्रि पर भी सर्वत्र गम्य और अगम्य स्थलों पर विचरण करते चारणों द्वारा हे भोज, मैंने बहुत बार तुम्हारा यश सुना । .

 चमत्कृत हो राजा ने प्रत्येक अक्षर पर लाख मुद्राएँ दीं।

(२३) शोजतप्तो राजा

 ततः कदाचिद्राजा विद्वृन्दं निर्गतं कालिदासं चानवरतवेश्या 'लम्पटं ज्ञात्वा व्यचिन्तयत्- 'अहह, बाणमयूरप्रभृतयो मदीयामाज्ञं व्यदधुः । अयं च वेश्यालम्पटतया ममाज्ञां नाद्रियते । किं कुर्मः' इति ततो राजा सावज्ञं कालिदासमपश्यत् । -

 तत्पश्चात् विद्वन्मंडली को काशी गया और कालिदास को निरंत वेश्याव्यसनी जानकर राजा ने सोचा-'अरे, बाण, मयूर आदि ने मेरी आज्ञा का पालन किया और इस (कालिदास ) ने वेश्याव्यसनी होने से, मेरं आज्ञा का आदर नहीं किया। क्या किया जाय ?' तब राजा कालिदास को अवज्ञा पूर्वक देखने लगा।