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भोजप्रबन्धः


 ब्रह्मचारी प्राह--'देव, त्वमीश्वरः । त्वया किमसाध्यम् ।

सारङ्गाः सुहृदो गृहं गिरिगुहा शान्तिः प्रिया गेहिनी
वृत्तिर्वन्यलताफलनिवसनं श्रेष्ठं तरूणां त्वचः ।
तद्धयानामृतपूरमप्रमनसां येपामियं निर्वृति-
स्तेषामिन्दुकलावतसयमिनां मोक्षेऽपि नो न स्पृहा' ।। २७३ ।।

 ब्रह्मचारी बोला-'महाराज, आप समर्थ हैं, आप से क्या असाध्य है ?-

 'हिरन-चातकादि पशु-पक्षी मित्र हैं, पर्वत की गुफा घर है, शांति प्रिय घरनी है, वन-लताओं के फल आहार हैं और वृक्षों की छाल ही निःशेष वस्त्र हैं। उनके ध्यान रूपी अमृत प्रवाह में जिनका मन मग्न रहता है और जिनका जीवन व्यापार इसी प्रकार चलता है, उन चंद्रकला के धारी शिव के व्रतधारियों को मोक्ष की भी कामना नहीं रहती।'

 राजोत्थाय पादयोः पतति । आह च--'ब्रह्मन् , मया किं कर्तव्यम् इति । स आह--'देव, वयं काशीं जिगमिषवः । तत एवं विधेहि। ये त्वत्सदने पण्डितवरास्तान्सर्वानपि सपत्नीकान्काशीं प्रति प्रेषय । ततोऽहं गोष्ठीतृप्तः काशी गमिष्यामि' इति । राजा तथा चक्रे। . '

 राजा उठकर पैरों पड़ा और बोला-'ब्रह्मचारिन्, मुझे क्या करने को कहते हैं ? उसने कहा-'महाराज, हम काशी जाना चाहते हैं; सो ऐसा करो । तुम्हारे भवन में जो अच्छे पंडित हैं, उन सबको भी सपत्नीक काशी भेज दो। तो मैं उनकी संगति में तृप्त होता काशी पहुँच जाऊँगा।' राजा ने वैसे कर दिया ।

 ततः सर्वे पण्डितवरास्तदाज्ञया प्रस्थिताः । कालिदास एको न गच्छति स्म । तदा राजा कालिदासंप्राह--सुकवे, त्वं कुतो न गतोऽसि' इति । ततः कालिदासो राजानं प्राह-देव, सर्वज्ञोऽसि ।

ते यान्ति तीर्थेषु बुधा ये शम्भोर्दूरवर्तिनः।
यस्य गौरीश्वरश्चित्ते तीर्थं भोज परं हि सः' ! २७४ ।।

 तब सर्व पंडितवर राजा की आज्ञा से चले गये, एक कालिदास नहीं गया । तो राजा ने कालिदास से कहा-'हे सुकवि, तुम क्यों नहीं गये ?' तो कालिदास ने राजा से कहा---'देव, माप सर्वज्ञाता हैं ।