भवति । परमनेन न कदापि वीक्षितास्ति राजसभा । यतो दारिद्रय.
वारिधिरयम् । अस्य च जीर्णमपि कौपीनं नास्ति ।' ततो राजा सोम-
नाथं प्राह--
'निरवद्यानि पद्यानि यद्यनाथस्य का क्षतिः ।
भिक्षुणा कक्षनिक्षिप्तः किभिक्षुर्नीरसो भवेत्' ।। २०३ ॥
ततः सर्वेभ्यस्ताम्बूलं दत्त्वा राजा सभाया उदतिष्ठत् ।
उस क्षण जिससे प्रतिद्वन्द्विता न हो सके, ऐसी उसकी कविता सुनकर सोमनाथ नाम के कवि का मुँह उतर गया । और वह दुष्टतापूर्वक राजा से बोला--'महाराज, यह कवि तो अच्छा है, पर इसने कभी राज सभा नहीं देखी है, क्योंकि यह दरिद्रता का समुद्र है। इसके पास तो फटा-पुराना कौपीन तक नहीं है ।' तब राजा ने सोमनाथ से कहा---
यदि किसी निःसहाय का काव्य श्रेष्ठ है, तो इसमें हानि क्या है ? भिखारी की कारव में रखा गन्ना कहीं नीरस होता है ?
फिर सब को पान देकर राजा सभा से उठ गया ।
ततः सर्वैरप्यन्योन्यमित्यभ्यधायि--'अद्य विष्णुकवेः कवित्वमाकर्ण्य सोमनाथेन सम्यग्दौष्टयमकारि ।' ततः समुत्थिता विद्वत्परिषत् । ततो विष्णुकविरेकं पद्य पत्रे लिखित्वा सोमनाथकविहस्ते दत्त्वा प्रणम्य गन्तुमारभत । 'अत्र सभायां त्वमेव चिरं नन्द ।'
तब सब परस्पर कहने लगे-'आज विष्णु कवि की कविता सुनकर सोमनाथ ने बड़ी दुष्टता की। इसके बाद विद्वत्-सभा उठायी । तब विष्णु कवि ने एक पद्य पत्र पर लिख कर सोमनाथ कवि के हाथ में दिया और प्रणाम करके जाने लगा--'यहाँ सभा में तुम्हीं चिरकाल तक सानंद रहो।' ततो वाचयति सोमनाथकविः-
"एतेषु हा तरुणमारुतधूयमान-
दावानलेः कवलितेपु महीरुहेषु ।
अम्भो न चेज्जलद मुञ्चसि मा विमुञ्च
वज्रं पुनःक्षिपसि निर्दय कस्य हेतोः ॥ २०४ ॥
ततः सोमनाथकविर्निखिलमपि पट्टदुकूलवित्तहिरण्यमयीं तुरङ्गमादिसंपत्तिं कलत्रवस्त्रावशेष दत्तवान् ।