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पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/१०६

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भोजप्रबन्धः


 तुष्टो राजा तस्मै वीरबलयं चोरप्रदत्तं निश्चित्य स्वयं च लक्षं ददौ ।  राजा ने पूछा---'तुम्हारे पास एक अति सामान्य व्यक्ति के धारण योग्य वस्त्र तक नही हैं, आज प्रातः काल ही दिव्य कुंडल आभूपण और रेशमी वस्त्र कहाँ से मिल गये ?' ब्राह्मण ने कहा-

 जिस सरोवर में मेढ़क और कछुए धरती के भीतर मृतक के समान विलों में सोये पड़े थे और भारी कीचड़ में तड़पती मछलियाँ मूच्छित हो चली थीं, एक असमय के बादल ने आकर उस सूखे ताल में ऐसा कर दिया कि आज वहाँ सिर तक डूबे वन-हस्तियों के झुण्ड जल पी रहे हैं।

 संतुष्ट राजा ने समझ लिया कि जो वीर कंकण चोर को दिया गया था, वह उसने इसे ही दे दिया है और स्वयम् उसे लाख मुद्राएँ दीं।

(१४) विष्णु-कविः

 अन्यदा कोऽपि कवीश्वरो विष्ण्वाख्यो राजद्वारि समागत्य तैः प्रवेशितो राजानं दृष्ट्वा स्वस्तिपूर्वकं प्राह--

 "धाराधीश धरामहेन्द्रगणनाकौतूहलीयानयं

 वेधास्त्वद्गणने चकार खटिकाखण्डेन रेखां दिवि ।

 सैवेयं त्रिदशापगा समभवत्त्वत्तुल्यभूमीधरा-

 भावात्तु त्यजति स्म सोऽयमवनीपीठे तुषाराचलः ॥'

राजा लोकोत्तरं श्लोकमाकर्ण्य 'किं देयम्' इति व्यचिन्तयत् । और वार एक विष्णु नामक कविराज राजद्वार पर पहुँचा और भीतर प्रविष्ट कराया जाने पर राजा को देख 'स्वस्ति'-वचन-पूर्वक बोला- हे घारा के स्वामी, धरती के महान् राजाओं की गणना करने के इच्छुक ब्रह्मा ने आपकी गणना करते समय आकाश में जो खरिया से लकीर खींची, वही यह आकाश गंगा है, और आपके समान पृथ्वी पालक न पाकर जो पृथ्वी पर उसे फेंक दिया, वही यह हिमाचल है ।

 अपूर्व श्लोक राजा सोचने लगा कि इसे क्या हूँ।

 तस्मिन्क्षणे तदीयकवित्वमप्रतिद्वन्द्वमाकर्ण्य सोमनाथाख्यकवेर्मुखं विच्छायमभवत् । ततः स दौष्टयाद्राजानं प्राह--'देव, असौ सुकवि-