तब सोमनाथ कवि ने उसे वाचा--
प्रबल वायु के द्वारा भड़कायी जाती दावाग्नि के ग्रास लन गये इन वृक्षों पर हे जलद, यदि तुम पानी नहीं बरसाते तो न बरसाओ, किंतु हे निर्दय, इन पर वज्र किस लिए गिराते हो?
तो सोमनाथ कवि ने पत्नी और देहे वस्त्र मात्र शेष रख कर, रेशमी अस्त्र, वन, स्वर्ण और अश्व आदि संपूर्ण संपत्ति विष्णु कवि को दे डाली ।
ततो राजा मृगयारसप्रवृत्तो गच्छंस्तं विष्णुकविमालोक्य व्यचिन्तयत्-मयास्मै भोजनमपि न प्रदत्तम् । मामनादृत्यायं सम्पन्तिपूर्णः स्वदेश प्रति यास्यति । पुच्छामि । विष्णुकवे, कुतः सम्पतिः प्राप्ता ।' कविराह--
सोमनावेन राजेन्द्र देव त्वद्गृहभिक्षुणा।
अद्य शोच्यतमे पूर्णं मयि कल्पद्रुमायितम् ।. २०५ ॥
तदनंतर आखेट के निमित्त जाते राजा ने उस विष्णु कवि को देख कर विचार किया--'मैंने तो इसे भोजन भी नहीं दिया। मेरा अनादर करके संपत्ति से भरा पूरा हो यह अपने देश चला जायेगा पूछता हूँ। हे विष्णु कवि, संपत्ति कहाँ से पा ली?' कवि वोला-
हे राजेश्वर, महाराज, आपके घर के भिक्षुक सोमनाथ ने आज मुझ दीन तम व्यक्ति पर पूर्णतः कल्पवृक्ष की भांति कृपा की।
राजा पूर्व सभायां श्रुतस्य श्लोकस्याक्षरलक्ष ददौ। सोमनायेन च यावद्दत्तं तावदपि सोमनाथाय दत्तवान् । सोमनाथः प्राह-
'किसलयानि कुतः कुसुमानि वा
क्व च फलानि तथा वनवीरुधाम् ।
अयमकारणकारुणिको यदा
न तरतीह पयांसि पयोधरः ॥२०६॥
राजा ने पहिले समा में सूने श्लोक पर प्रत्यक्षर लक्ष मुद्राएँ दी और सोमनाथ न जितना दिया था, उतना सोमनाथ को भी दिया। सोमनाथ बोला-
वनके वृक्षों ने कहाँ से तो पत्ते आते और कहां से फल और फल, यदि कारण के करुणै करने वाला यह जलधर इन्हें जल से तर न कर देता?