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यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः ४/मन्त्रः ३७

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अध्यायः ४
दयानन्दसरस्वती
मन्त्रः ३७ →
सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान्
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः ४


या ते धामानीत्यस्य गोतम ऋषिः। यज्ञो देवता। निचृदार्षी त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥

पुनरेतौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥

फिर ये कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

या ते॒ धामा॑नि ह॒विषा॒ यज॑न्ति॒ ता ते॒ विश्वा॑ परि॒भूर॑स्तु य॒ज्ञम्।

ग॒य॒स्फानः॑ प्र॒तर॑णः सु॒वीरोऽवी॑रहा॒ प्रच॑रा सोम॒ दुर्या॑न्॥३७॥

पदपाठः—या। ते॒। धामा॑नि। ह॒विषा॑। यज॑न्ति। ता। ते॒। विश्वा॑। प॒रि॒भूरिति॑ परि॒ऽभूः। अ॒स्तु॒। य॒ज्ञम्। ग॒य॒स्फान॒ इति॑ गय॒ऽस्फानः॑। प्र॒तर॑ण॒ इति॑ प्र॒ऽतर॑णः। सु॒वीर॒ इति॑ सु॒ऽवीरः॑। अवी॑र॒हेत्यवी॑रऽहा। प्र। च॒र॒। सो॒म॒। दुर्य्या॑न्॥३७॥

पदार्थः—(या) यानि। अत्र सर्वत्र शेश्छन्दसि॰। [अष्टा॰६.१.७०] इति शेर्लोपः (ते) तव तस्य वा (धामानि) अधिकरणानि द्रव्याणि (हविषा) ग्राह्येण दातव्येन पदार्थेन साधकेन वा (यजन्ति) पूजयन्ति सङ्गमयन्ति वा (ता) तानि (ते) तव तस्य वा (विश्वा) सर्वाणि (परिभूः) परितः सर्वतो भवतीति (अस्तु) भवतु (यज्ञम्) यष्टुमर्हम् (गयस्फानः) गयानामपत्यधनगृहाणां स्फानो वर्धयिता। गय इत्यपत्यनामसु पठितम्। (निघं॰२.२) धननामसु। (निघं॰२.१०) गृहनामसु च। (निघं॰३.४) (प्रतरणः) प्रतरति दुःखानि येन सः (सुवीरः) शोभना वीरा यस्मिन् सः (अवीरहा) अवीरान् कातरान् मनुष्यान् हन्ति येन सः। अत्र कृतो बहुलम्। [अष्टा॰भा॰वा॰ ३.३.११३] इति करणे क्विप् (प्रचर) विजानीह्यनुतिष्ठ (सोम) सोमविद्यासम्पादक विद्वन् (दुर्य्यान्) गृहाणि। दुर्य्या इति गृहनामसु पठितम्। (निघं॰२.४)। अयं मन्त्रः (शत॰३.३.४.३०) व्याख्यातः॥३७॥

अन्वयः—हे जगदीश्वर! यथा विद्वांसो यानि ते तव धामानि हविषा यजन्ति, तथा ता तानि विश्वा सर्वाणि वयमपि यजेमैतेषां यथा यस्ते तव गयस्फानः प्रतरणः सुवीरोऽवीरहा परिभूर्यज्ञःप्रदोऽस्ति, तथा स भवत्कृपयाऽस्मभ्यमपि सुखकार्य्यस्तु। हे सोम विद्वन्! यथा वयमेतं यज्ञमनुष्ठाय गृहेषु प्रचरेम विजानीयामानुतिष्ठेम तथा त्वमप्येतं दुर्य्यान् गृहाणि प्रचर, विजानीह्यनुतिष्ठ॥३७॥

भावार्थः—अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा विद्वांस ईश्वरे प्रीतिं संसारे यज्ञानुष्ठानं कुर्वन्ति, तथैव सर्वैर्मनुष्यैरनुष्ठेयम्॥३७॥

अस्मिन्नध्याये शिल्पविद्या, वृष्टिपवित्रतासम्पादनम्, विदुषां सङ्गः, यज्ञानुष्ठानम्, उत्साहादिप्रापणम्, युद्धकरणम्, शिल्पविद्यास्तुतिः, यज्ञगुणवर्णनम्, सत्यव्रतधारणम्, जलाग्न्योर्गुणवर्णनम्, पुनर्जन्मकथनम्, ईश्वरप्रार्थनम्, यज्ञानुष्ठानम्, मातापित्रादेः पुत्रादिनाऽनुकरणम्, यज्ञव्याख्या, दिव्यधीप्रापणम्, परमेश्वरार्चनम्, सूर्य्यगुणवर्णनम्, पदार्थक्रयविक्रयोपदेशः, मित्रत्वसम्पादनम्, धर्ममार्गे प्रचारकरणम्, परमेश्वरसूर्य्यगुणप्रकाशनम्, चोरादिनिवारणम्, ईश्वरसूर्य्यादिगुणवर्णनम्, यज्ञफलं चेत्युक्तमत एतदुक्तार्थानां तृतीयाध्यायार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्। अयमप्यध्याय ऊवटमहीधरादिभिरन्यथैव) व्याख्यातः॥

पदार्थः—हे जगदीश्वर जैसे विद्वान् लोग (या) जिन (ते) आप के (धामानि) स्थानों को (हविषा) देने-लेने योग्य द्रव्यों से (यजन्ति) सत्कारपूर्वक ग्रहण करते हैं, वैसे हम लोग भी (ता) उन (विश्वा) सभों को ग्रहण करें, जैसे (ते) आप का वह यज्ञ विद्वानों को (गयस्फानः) अपत्य, धन और घरों के बढ़ाने (प्रतरणः) दुःखों से पार करने (सुवीरः) उत्तम वीरों का योग कराने (अवीरहा) कायर दरिद्रतायुक्त अवीर अर्थात् पुरुषार्थरहित मनुष्य और शत्रुओं को मारने तथा (परिभूः) सब प्रकार से सुख कराने वाला है, वैसे वह आप की कृपा से हम लोगों के लिये (अस्तु) हो वा जिसको विद्वान् लोग (यजन्ति) यजन करते हैं, उस (यज्ञम्) यज्ञ को हम लोग भी करें। हे (सोम) सोमविद्या को सम्पादन करने वाले विद्वन्! जैसे हम लोग इस यज्ञ को करके घरों में आनन्द करें, जानें, इसमें कर्म करें, वैसे तू भी इस को करके (दुर्य्यान्) घरों में (प्रचर) सुख का प्रचार कर, जान और अनुष्ठान कर॥३७॥

भावार्थः—इन मन्त्र मे श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् लोग ईश्वर से प्रीति, संसार में यज्ञ के अनुष्ठान को करते हैं, वैसे ही सब मनुष्यों को करना उचित है॥३७॥

इस अध्याय में शिल्पविद्या, वृष्टि की पवित्रता का सम्पादन, विद्वानों का सङ्ग, यज्ञ का अनुष्ठान, उत्साह आदि की प्राप्ति, युद्ध का करना, शिल्पविद्या की स्तुति, यज्ञ के गुणों का वर्णन, सत्यव्रत का धारण, अग्नि-जल के गुणों का वर्णन, पुनर्जन्म का कथन, ईश्वर की प्रार्थना, यज्ञानुष्ठान, पुत्रादिकों द्वारा माता-पिता का अनुकरण, यज्ञ की व्याख्या, दिव्य बुद्धि की प्राप्ति, परमेश्वर का अर्चन, सूर्य्यगुण वर्णन, पदार्थों के क्रय-विक्रय का उपदेश, मित्रता करना, धर्ममार्ग में प्रचार करना, परमेश्वर वा सूर्य्य के गुणों का प्रकाश, चोर आदि का निवारण, ईश्वर-सूर्य्यादि गुणवर्णन और यज्ञ का फल कहा है। इससे इस अध्यायार्थ की तीसरे अध्याय के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये। ऊवट और महीधर आदि ने इस अध्याय का भी शब्दार्थ विरुद्ध ही वर्णन किया है॥

इति श्रीमत्परिव्राजकाचार्य्येण श्रीयुत्महाविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषिते सुप्रमाणयुक्ते यजुर्वेदभाष्ये चतुर्थोऽध्यायः पूर्त्तिमगात्॥४॥