यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः ४/मन्त्रः २१
← मन्त्रः २० | यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्) अध्यायः ४ दयानन्दसरस्वती |
मन्त्रः २२ → |
सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान् |
वस्वीत्यस्य वत्स ऋषिः। वाग्विद्युतौ देवते। विराडार्षी बृहती छन्दः। मध्यमः स्वरः॥
पुनस्ते कीदृश्यावित्युपदिश्यते॥
फिर वह वाणी वा बिजुली किस प्रकार की है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
वस्व्य॒स्यदि॑तिरस्यादि॒त्यासि॑ रु॒द्रासि॑ च॒न्द्रासि॑।
बृह॒स्पति॑ष्ट्वा सु॒म्ने र॑म्णातु रु॒द्रो वसु॑भि॒राच॑के॥२१॥
पदपाठः—वस्वी॑। अ॒सि॒। अदि॑तिः। अ॒सि॒। आ॒दि॒त्या। अ॒सि॒। रु॒द्रा। अ॒सि॒। च॒न्द्रा। अ॒सि॒। बृह॒स्पतिः॑। त्वा॒। सु॒म्ने। र॒म्णा॒तु॒। रु॒द्रः। वसु॑भि॒रिति॒॑ वसु॑ऽभिः। आ। च॒के॒॥२१॥
पदार्थः—(वस्वी) याऽग्न्यादिपदार्थाख्यवसुविद्यासम्बन्धिनी वसुभिश्चतुर्विंशतिवर्षकृतब्रह्मचर्य्यैः प्राप्ता सा (असि) अस्ति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (अदितिः) प्रकाशवन्नित्या। अदितिर्द्यौरिति प्रकाशकारकोऽर्थो गृह्यते (असि) अस्ति (आदित्या) याऽऽदित्यवदर्थविद्याप्रकाशिकाऽष्टचत्वारिंशत् संवत्सरपर्यन्तानुष्ठितब्रह्मचर्य्यैः स्वीकृता सा (असि) अस्ति (रुद्रा) सा प्राणवायुसम्बन्धिनी चतुश्चत्वारिंशद्धायनावधिसेवितब्रह्मचर्यैः स्वीकृता सा (असि) अस्ति (चन्द्रा) आह्लादयित्री (असि) (बृहस्पतिः) परमेश्वरो विद्वान् वा (त्वा) ताम् (सुम्ने) सुखे (रम्णातु) रमयतु। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थोः विकरणव्यत्ययश्च (रुद्रः) दुष्टानां रोदयिता विद्वान् (वसुभिः) उषितसर्वविद्यैर्विद्वद्भिः सह (आ) समन्तात् (चके) कामितवान् कामयतां वा, अत्र पक्षे लोडर्थे लिट्। आचक इति कान्तिकर्मसु पठितम्। (निघं॰२.६)। अयं मन्त्रः (शत॰३.२.१.१-२) व्याख्यातः॥२१॥
अन्वयः—हे विद्वन् मनुष्य! यथा या वस्व्यस्त्यदितिर(स्य)स्ति रुद्रास्यस्त्यादित्या(स्य)स्ति चन्द्रा(स्य)स्ति, यां बृहस्पतिः सुम्ने रमयति प्रेरयति, यां रुद्रो वसुभिः सह वर्त्तमानामाचके, यामहं कामये, तथा त्वा तां भवान् रम्णातु रमयतु॥२१॥
भावार्थः—अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा ये वाग्विद्युतौ प्राणपृथिव्यादिभिः सह वर्त्तमाने अनेकव्यवहारहेतू स्तो ये जितेन्द्रियादिधर्मपुरस्सरं यथायोग्यं कृतब्रह्मचर्यैर्मनुष्यैर्विज्ञानेन क्रियासु संप्रयोजिते सत्यौ वाग्विद्युतौ बहुसुखकारिके जायेते, एतां त्वमपि नित्यं सेवस्व॥२१॥
पदार्थः—हे विद्वन् मनुष्य! जैसे जो (वस्वी) अग्नि आदि विद्या सम्बन्धी, जिसकी सेवा २४ चौबीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य करने वालों ने की हुई (असि) है, जो (अदितिः) प्रकाशकारक (असि) है, जो (रुद्रा) प्राणवायु सम्बन्ध वाली और जिसको ४४ चवालीस वर्ष ब्रह्मचर्य करनेहारे प्राप्त हुए हों, वैसी (असि) है, जो (आदित्या) सूर्य्यवत् सब विद्याओं का प्रकाश करने वाली, जिसका ग्रहण ४८ अड़तालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्यसेवी मनुष्यों ने किया हो, वैसी (असि) है, जो (चन्द्रा) आह्लाद करने वाली (असि) है, जिसको (बृहस्पतिः) सर्वोत्तम (रुद्रः) दुष्टों को रुलाने वाला परमेश्वर वा विद्वान् (सुम्ने) सुख में (रम्णातु) रमणयुक्त करता और जिस (वसुभिः) पूर्णविद्यायुक्त मनुष्यों के साथ वर्त्तमान हुई वाणी वा बिजुली की (आचके) निर्माण वा इच्छा करता अथवा जिसकी मैं इच्छा करता हूं, वैसे तू भी (त्वा) उसको (रम्णातु) रमणयुक्त वा इसको सिद्ध करने की इच्छा कर॥२१॥
भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे वाणी, बिजुली और प्राण पृथिवी आदि और विद्वानों के साथ वर्त्तमान हुए अनेक व्यवहार की सिद्धि के हेतु हैं और जिनकी सेवा जितेन्द्रियादि धर्मसेवनपूर्वक होके विद्वानों ने की हो, वैसी वाणी और बिजुली मनुष्यों को विज्ञान पूर्वक क्रियाओं से संप्रयोग की हुई बहुत सुखों के करने वाली होती है॥२१॥