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यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः ४/मन्त्रः ६

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अध्यायः ४
दयानन्दसरस्वती
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान्
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः ४


स्वाहा यज्ञमित्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः। यज्ञो देवता। निचृदार्ष्यनुष्टुप् छन्दः। गान्धारः स्वरः॥

किं किमर्थः स यज्ञोऽनुष्ठातव्य इत्युपदिश्यते॥

किस-किस प्रयोजन के लिये इस यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

स्वाहा॑ य॒ज्ञं मन॑सः॒ स्वाहो॑रोर॒न्तरि॑क्षा॒त् स्वाहा॒ द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॒ स्वाहा॒ वाता॒दार॑भे॒ स्वाहा॑॥६॥

पदपाठः—स्वाहा॑। य॒ज्ञम्। मन॑सः। स्वाहाः॑। उ॒रोः। अ॒न्तरि॑क्षात्। स्वाहा॑। द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म्। स्वाहा॑। वाता॑त्। आ। र॒भे॒ स्वाहा॑॥६॥

पदार्थः—(स्वाहा) प्रत्यक्षलक्षणया वेदस्थया वाचा (यज्ञम्) क्रियाजन्यम् (मनसः) विज्ञानात् (स्वाहा) सुशिक्षितया वाचा (उरोः) बहुनः, अत्र लिङ्गव्यत्ययेन पुँस्त्वम् (अन्तरिक्षात्) सूर्यपृथिव्योर्मध्ये वर्त्तमानादाकाशात् (स्वाहा) विद्याप्रकाशिकया वाण्या (द्यावापृथिवीभ्याम्) प्रकाशभूम्योः शुद्धये (स्वाहा) सत्यप्रियत्वादिगुणविशिष्टया वाचा (वातात्) वायोः (आ) समन्तात् (रभे) कुर्वे (स्वाहा) सुष्ठु जुहोति गृह्णाति ददाति यया क्रियया तया। अयं मन्त्रः (शत॰३.१.३.२५-२८) व्याख्यातः॥६॥

अन्वयः—हे मनुष्या! यथाहं स्वाहा वेदोक्तया स्वाहा सुशिक्षितया स्वाहा विद्याप्रकाशिकया स्वाहा सत्यप्रियत्वादिगुणयुक्तया वाचा स्वाहा सुष्ठु क्रियया चोरोर्मनसोऽन्तरिक्षाद् वाताद् द्यावापृथिवीभ्यां यज्ञमारभे नित्यं कुर्वे तथा भवन्तोऽप्यारभन्ताम्॥६॥

भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्वेदरीत्या यो मनोवचनकर्मभिरनुष्ठितो यज्ञो भवति, सोऽन्तरिक्षादिभ्यो वायुशुद्घिद्वारा प्रकाशपृथिव्योः पवित्रतां सम्पाद्य सर्वान् सुखयतीति॥६॥

पदार्थः—हे मनुष्य लोगो! जैसे मैं (स्वाहा) वेदोक्त (स्वाहा) उत्तम शिक्षा सहित (स्वाहा) विद्याओं का प्रकाश (स्वाहा) सत्य और सब जीवों के कल्याण करनेहारी वाणी और (स्वाहा) अच्छे प्रकार प्रयोग की हुई उत्तम क्रिया से (उरोः) बहुत (अन्तरिक्षात्) आकाश और (वातात्) वायु की शुद्धि करके (द्यावापृथिवीभ्याम्) शुद्ध प्रकाश और भूमिस्थ पदार्थ (मनसः) विज्ञान और ठीक-ठीक क्रिया से (यज्ञम्) यज्ञ को पूर्ण करने के लिये पुरुषार्थ का (आरभे) नित्य आरम्भ करता हूं, वैसे तुम लोग भी करो॥६॥

भावार्थः—मनुष्यों के द्वारा जो वेद की रीति और मन, वचन, कर्म से अनुष्ठान किया हुआ यज्ञ है, वह आकाश में रहने वाले वायु आदि पदार्थों को शुद्ध करके सब को सुख करता है॥६॥