यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः ४/मन्त्रः ५
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान् |
आ वो देवास इत्यस्य प्रजापतिर्ऋषिः। यज्ञो देवता। निचृतार्ष्यनुष्टुप् छन्दः। गान्धारः स्वरः॥
मनुष्यैः कथं पुरुषार्थः कर्त्तव्य इत्युपदिश्यते॥
मनुष्यों को किस प्रकार का पुरुषार्थ करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
आ वो॑ देवासऽईमहे वा॒मं प्र॑य॒त्य᳖ध्व॒रे। आ वो॑ देवासऽआ॒शिषो॑ य॒ज्ञिया॑सो हवामहे॥५॥
पदपाठः—आ। वः॒। दे॒वा॒सः॒। ई॒म॒हे॒। वा॒मम्। प्र॒य॒तीति॑ प्रऽय॒ति। अ॒ध्व॒रे। आ। वः॒। दे॒वा॒सः॒। आ॒शिष॒ इत्या॒ऽशिषः॑। य॒ज्ञिया॑सः। ह॒वा॒म॒हे॒॥५॥
पदार्थः—(आ) समन्तात् (वः) युष्मान् (देवासः) ये दीव्यन्ति विद्यादिगुणैः प्रकाशन्ते तत्सम्बुद्धौ (ईमहे) याचामहे, ईमह इति याच्ञाकर्मसु पठितम्। (निघं॰३.१९) (वामम्) प्रशस्तं गुणकर्मसमूहम्, वाममिति प्रशस्यनामसु पठितम्। (निघं॰३.८) (प्रयति) प्रकृष्टं सुखमेति येन तस्मिन्। अत्र कृतो बहुलम्। [अष्टा॰भा॰वा॰ ३.३.११३] इति करणकारके कृत् (अध्वरे) अहिंसनीये यज्ञे (आ) अभितः (वः) युष्माकं सकाशात् (देवासः) विद्वांसः (आशिषः) इच्छाः (यज्ञियासः) या यज्ञमर्हन्ति ताः (हवामहे) स्वीकुर्वीमहि, लेट् प्रयोगोऽयम्। अयं मन्त्रः (शत॰३.१.३.२४) व्याख्यातः॥५॥
अन्वयः—हे देवासो! यथा वयं वो युष्मान् प्रत्यध्वरे वो युष्माकं वाममेमहे समन्ताद् याचामहे, हे यज्ञियासो देवासो! यथाऽस्मिन् संसारे वो युष्माकं सकाशात् यज्ञिया आशिष आहवामहेऽभितः स्वीकुर्वीमहि, तथैवास्मदर्थं भवद्भिः सततमनुष्ठेयम्॥५॥
भावार्थः—मनुष्यैः परमविद्वद्भ्यः प्रशस्ता विद्याः सम्पाद्य स्वेच्छाः पूर्णाः कृत्वैतेषां सङ्गसेवे सदैव कर्त्तव्ये॥५॥
पदार्थः—हे (देवासः) विद्यादि गुणों से प्रकाशित होने वाले विद्वान् लोगो! जैसे हम लोग (वः) तुम को (प्रयति) सुखयुक्त (अध्वरे) हिंसा करने अयोग्य यज्ञ के अनुष्ठान में (वः) तुम्हारे (वामम्) प्रशंसनीय गुणसमूह की (आ ईमहे) अच्छे प्रकार याचना करते हैं। हे (देवासः) विद्वान् लोगो! जैसे हम लोग इस संसार में आप लोगों से (यज्ञियासः) यज्ञ को सिद्ध करने योग्य (आशिषः) इच्छाओं को (आ हवामहे) अच्छे प्रकार स्वीकार कर सकें, वैसे ही हम लोगों के लिये आप लोग सदा प्रयत्न किया कीजिये॥५॥
भावार्थः—मनुष्यों को योग्य है कि उत्तम विद्वानों के प्रसङ्ग से उत्तम-उत्तम विद्याओं का सम्पादन कर, अपनी इच्छाओं को पूर्ण करके इन विद्वानों का सङ्ग और सेवा सदा करना चाहिये॥५॥