महाभारतम्-18-स्वर्गारोहणपर्व-002
दिखावट
← स्वर्गारोहणपर्व-001 | महाभारतम् अष्टादशपर्व महाभारतम्-18-स्वर्गारोहणपर्व-002 वेदव्यासः |
स्वर्गारोहणपर्व-003 → |
स्वर्गे कर्णादिबन्धुजनानपश्यता युधिष्ठिरेण देवान्प्रति यत्र कुत्रापि बन्धुजनैः सहैव स्वस्य निवासेच्छानिवेदनम्।। 1 ।।
देवैर्युधिष्ठिराय बन्धुजनप्रदर्शनं चोदितेन देवदूतेन तस्य नरकप्रदेशप्रापणम्।। 2 ।।
दुर्दर्शनरकदर्शनासहिष्णुतया सह दूतेन प्रतिनिवर्तमानेन युधिष्ठिरेण श्रुतपूर्वकण्ठध्वनिश्रवणम्।। 3 ।।
ततो युधिष्ठिरपृष्टैस्तैस्तं प्रित स्वेषां कर्मभीमादित्वकथनम्।। 4 ।।
ततस्तेन दूतंप्रति इन्द्रे स्वस्य तत्समीपं प्रत्यनागमनचोदना।। 5 ।।
दूतेनेन्द्रे युधिष्ठिरचिकीर्षितनिवेदनम्।। 6 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 18-2-1x |
नेह पश्यामि विबुधा राधेयममितौजसम्। भ्रातरौ च महात्मानौ युधामन्यूत्तमौजसौ।। | 18-2-1a 18-2-1b |
जुहुवुर्ये शरीराणि रणवह्नौ महारथाः। राजानो राजपुत्राश्च ये मदर्थे हता रणे।। | 18-2-2a 18-2-2b |
क्व ते महारथाः सर्वे शार्दूलसमविक्रमाः। तैरप्ययं जितो लोकः कच्चित्पुरुषसत्तमैः।। | 18-2-3a 18-2-3b |
यदि लोकानिमान्प्राप्तास्ते च सर्वे महारथाः। स्थितं वित्त हि मां देवाः सहितं तैर्महात्मभिः।। | 18-2-4a 18-2-4b |
कच्चिन्न तैरवाप्तोऽयं नृपैर्लोकोऽक्षयः शुभः। न तैरहं विना वत्स्ये भ्रातृभिर्ज्ञातिभिस्तथा।। | 18-2-5a 18-2-5b |
मातुर्हि वचनं श्रुत्वा तदा सलिलकर्मणि। कर्णस्य क्रियतां तोयमिति तप्यामि तेन वै।। | 18-2-6a 18-2-6b |
इदं च परितप्यामि पुनःपुनरहं सुराः। यन्मातुः सदृशौ पादौ तस्याहममितात्मनः।। | 18-2-7a 18-2-7b |
दृष्ट्वैव तं नानुगतः कर्णं परबलार्दनम्। न ह्यस्मान्कर्णसहिताञ्जयेच्छक्रोऽपि संयुगे।। | 18-2-8a 18-2-8b |
तमहं यत्रतत्रस्थं द्रष्टुमिच्छामि सूर्यजम्। अविज्ञातो मया योसौ घातितः सव्यसाचिना।। | 18-2-9a 18-2-9b |
भीमं च भीमविक्रान्तं प्राणेभ्योऽपि प्रियं मम। अर्जुनं चेन्द्रसंकाशं यमौ चैव यमोपमौ।। | 18-2-10a 18-2-10b |
द्रष्टुमिच्छामि तां चाहं पाञ्चालीं धर्मचारिणीम्। न चेह स्थातुमिच्छामि सत्यमेवं ब्रवीमि वः।। | 18-2-11a 18-2-11b |
किं मे भ्रातृविहीनस्य स्वर्गेण सुरसत्तमाः। यत्र ते मम स स्वर्गो नायं स्वर्गो मतो मम।। | 18-2-12a 18-2-12b |
देवा ऊचुः। | 18-2-13x |
यदि वै तत्र ते श्रद्धा गम्यतां तत्र माचिरम्। प्रिये हि तव वर्तामो देवराजस्य शासनात्।। | 18-2-13a 18-2-13b |
वैशम्पायन उवाच। | 18-2-14x |
इत्युक्त्वा तं ततो देवा देवदूतमुपादिशन्। युधिष्ठिरस्य सुहृदो दर्शयेतदि परंतप।। | 18-2-14a 18-2-14b |
ततः कुन्तीसुतो राजा देवदूतश्च जग्मतुः। सहितौ राजशार्दूल यत्र ते पुरुषर्षभाः।। | 18-2-15a 18-2-15b |
अग्रतो देवदूतश्च ययौ राजा च पृष्ठतः। पन्थानमशुभं दुर्गं सेवितं पापकर्मभिः।। | 18-2-16a 18-2-16b |
तमसा संवृतं घोरं केशशैवलशाद्वलम्। युक्तं पापकृतां गन्धैर्मासशोणितकर्दमम्।। | 18-2-17a 18-2-17b |
दंशोत्पातकभल्लूकमक्षिकामशकावृतम्। इतश्चेतश्च कुणपैः समन्तात्परिवारितम्।। | 18-2-18a 18-2-18b |
अस्थिकेशसमाकीर्णं कृमिकीटसमाकुलम्। ज्वलनेन प्रदीप्तेन समन्तात्परिवेष्टितम्।। | 18-2-19a 18-2-19b |
अयोमुखैश्च काकाद्यैर्गृध्रैश्च समभिद्रुतम्। सूचीमुखैस्तथा प्रेतैर्विन्ध्यशैलोपमैर्वृतम्।। | 18-2-20a 18-2-20b |
मेदोरुधिरयुक्तैश्च च्छिन्नबाहूरुपाणिभिः। निकृत्तोदरपदैश्च तत्रतत्र प्रवेशितैः।। | 18-2-21a 18-2-21b |
स तत्कुणपदुर्गन्धमशिवं रोमहर्षणम्। जगाम राजा धर्मान्मा मध्ये बहु विचिन्तयन्।। | 18-2-22a 18-2-22b |
ददर्शोष्णोदकैः पूर्णां नदीं चापि सुदुर्गमाम्। असिपत्रवनं चैव निशितं क्षुरसंवृतम्।। | 18-2-23a 18-2-23b |
करम्भवालुकास्तप्ता आयसीश्चि शिलाः पृथक्। लोहकुंभीश्च तैलस्य क्वाथ्यमानाः समन्ततः।। | 18-2-24a 18-2-24b |
कूटशाल्मलिकं तापि दुःस्पर्शं तीक्ष्णकण्टकम्। ददर्शान्याश्च कौन्तेयो यातनाः पापकर्मिणाम्।। | 18-2-25a 18-2-25b |
स तं दुर्गन्धमालक्ष्य देवदूतमुवाच ह। कियदध्वानमस्माभिर्गन्तव्यमिममीदृशम्।। | 18-2-26a 18-2-26b |
क्व च ते भ्रातरो मह्यं तन्ममाख्यातुमर्हसि। देशोऽयं कश्च देवानामेतदिच्छामि वेदितुम्।। | 18-2-27a 18-2-27b |
स संनिववृते श्रुत्वा धर्मराजस्य भाषितम्। देवदूतोऽब्रवीचैनमेतावद्गमनं तव।। | 18-2-28a 18-2-28b |
निवर्तितव्यो हि मया तताऽस्म्युक्तो दिवौकसैः। यदि श्रान्तोसि राजेन्द्रि त्वमथागन्तुमर्हसि।। | 18-2-29a 18-2-29b |
युधिष्ठिरस्तु निर्विण्णस्तेनि गन्धेन मूर्छितः। निवर्तने धृतमनाः पर्यावर्तत भारत।। | 18-2-30a 18-2-30b |
सं संनिवृत्तो धर्मात्मा दुःखशोकसमाहतः। शुश्राव तत्र वदतां दीना वाचः समन्ततः।। | 18-2-31a 18-2-31b |
भोभो धर्मज राजर्षे पुण्याभिजन पाण्वन। अनुग्रहार्थमस्माकं तिष्ठ तावन्मुहूर्तकम्।। | 18-2-32a 18-2-32b |
आयाति त्वयि दुर्धर्षे वाति पुण्यः समीरणः। तव गन्धानुगस्तात येनास्मान्सुखमागमत्।। | 18-2-33a 18-2-33b |
ते वयं पार्थ दीर्घस्य कालस्य पुरुषर्षभ। सुखमासादयिष्यामस्त्वां दृष्ट्वा राजसत्तम।। | 18-2-34a 18-2-34b |
संतिष्ठस्व महाबाहो मुहूर्तमिह भारत। त्वयि तिष्ठति कौरव्य यातनाऽस्मान्न बाधते।। | 18-2-35a 18-2-35b |
एवं बहुविधा वाचः कृपणा वेदनावताम्। तस्मिन्देशे स शुश्राव समन्ताद्वदतां नृप।। | 18-2-36a 18-2-36b |
तेषां तु वचनं श्रुत्वा दयावान्दीनभाषिणाम्। अहो कृच्छ्रमिति प्राह तस्थौ स च युधिष्ठिरः।। | 18-2-37a 18-2-37b |
स ता गिरः पुरस्ताद्वै श्रुतपूर्वाः पुनःपुनः। ग्लानानां दुःखितानां च नाभ्यजानत पाण्डवः।। | 18-2-38a 18-2-38b |
अबुध्यमानस्ता वाचो धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः। उवाच के भवन्तो वै किमर्थमिह तिष्ठथ।। | 18-2-39a 18-2-39b |
इत्युक्तास्ते ततः सर्वे समन्तादवभाषिरे। कर्णोऽहं भीमसेनोऽहमर्जुनोऽहमिति प्रभो।। | 18-2-40a 18-2-40b |
नकुलः सहदेवोऽहं धृष्टद्युम्नोऽहमित्युत। द्रौप्दी द्रौपदेयाश्चि इत्येवं ते विचुक्रुशुः।। | 18-2-41a 18-2-41b |
ता वाचः स तदा श्रुत्वा तद्देशसदृशीर्नृप। ततो विममृशे राजा किंत्विदं दैवकारितम्।। | 18-2-42a 18-2-42b |
किन्तु तत्कलुषं कर्म कृतमेभिर्महात्मभिः। कर्णेन द्रौपदेयैर्वा पाञ्चाल्या वा सुमध्यया।। | 18-2-43a 18-2-43b |
य इमे पापगन्धेऽस्मिन्देशे सन्ति सुदारुणे। नाहं जानामि सर्वेषां दुष्कृतं पुण्यकर्मणाम्।। | 18-2-44a 18-2-44b |
किं कृत्वा धृतराष्ट्रस्य पुत्रो राजा सुयोधनः। तथा श्रिया युतः पापैः सहसर्वैः पदानुगैः।। | 18-2-45a 18-2-45b |
महेन्द्रि इव लक्ष्मीवानास्ते परमपूजितः। कस्येदानीं विकारोऽयं य इमे नरकं गताः।। | 18-2-46a 18-2-46b |
सर्वे धर्मविदः शूराः सत्यागमपरायणाः। क्षत्रधर्मरताः सन्तो यज्वानो भूरिदक्षिणाः।। | 18-2-47a 18-2-47b |
किंनु सुप्तोस्मि जागर्मि चेतयामि न चेतये। अहो चित्तविकारोऽयं स्याद्वा मे चित्तविभ्रमः।। | 18-2-48a 18-2-48b |
एवं बहुविधं राजा विममर्श युधिष्ठिरः। दुःखशोकसमाविष्टश्चिन्ताव्याकुलितेन्द्रियः।। | 18-2-49a 18-2-49b |
क्रोधमाहारयच्चैव तीव्रं धर्मसुतो नृपः। देवांश्च गर्हयामास धर्मं चैव युधिष्ठिरः।। | 18-2-50a 18-2-50b |
स तीव्रशोकसंतप्तो देवदूतमुवाच ह। गम्यतां तत्र येषां त्वं दूतस्तेषामुपान्तिकम्।। | 18-2-51a 18-2-51b |
न ह्यहं तत्र यास्यामि स्थितोस्मीति निवेद्यताम्। मत्संश्रयादिमे दूनाः सुखिनो भ्रातरो हि मे।। | 18-2-52a 18-2-52b |
इत्युक्तः स तदा दूतः पाण्डुपुत्रेण धीमता। जगामि तत्र यत्रास्ते देवराजः शतक्रतुःठ।। | 18-2-53a 18-2-53b |
निवेदयामास च तद्धर्मराजचिकीर्षितम्। यथोक्तं धर्मपुत्रेण सर्वमेव जनाधिप।। | 18-2-54a 18-2-54b |
।। इति श्रीमन्महाभारते स्वर्गारोहणपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः।। 2 ।। |
18-2-24 करंभवालुकाः श्वेतसूक्ष्मवालुका भ्राष्ट्रवालुका इत्यर्थः।। 18-2-49 विममर्श विचारं कृतवान्।। 18-2-52 दूनाः खिन्नाः।।
स्वर्गारोहणपर्व-001 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | स्वर्गारोहणपर्व-003 |