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यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः २९/मन्त्रः ५३

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अध्यायः २९
दयानन्दसरस्वती
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान्
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः २९


दिव इत्यस्य भारद्वाज ऋषिः। वीरो देवता। विराट् जगती छन्दः। निषादः स्वरः॥

पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह॥

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिए, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

दि॒वः पृ॑थि॒व्याः पर्योज॒ऽउद्भृ॑तं॒ वन॒स्पति॑भ्यः॒ पर्य्याभृ॑त॒ꣳ सहः॑।

अ॒पामो॒ज्मानं॒ परि॒ गोभि॒रावृ॑त॒मिन्द्र॑स्य॒ वज्र॑ꣳ ह॒विषा॒ रथं॑ यज॥५३॥

पदपाठः—दि॒वः। पृ॒थि॒व्याः। परि॑। ओजः॑। उद्भृ॑त॒मित्युत्ऽभृ॑तम्। वन॒स्पति॑भ्य॒ इति॒ वन॒स्पति॑ऽभ्यः। परि॑। आभृ॑त॒मित्याऽभृ॑तम्। सहः॑। अ॒पाम्। ओ॒ज्मान॑म्। परि॑। गोभिः॑। आवृ॑त॒मित्याऽवृ॑तम्। इन्द्र॑स्यः। वज्र॑म्। ह॒विषा॑। रथ॑म्। य॒ज॒॥५३॥

पदार्थः—(दिवः) सूर्यात् (पृथिव्याः) भूमेः (परि) (ओजः) पराक्रमम् (उद्भृतम्) उत्कृष्टतया धृतम् (वनस्पतिभ्यः) वटादिभ्यः (परि) (आभृतम्) समन्तात् पोषितम् (सहः) बलम् (अपाम्) जलानां सकाशात् (ओज्मानम्) पराक्रमयुक्तं रसम् (परि) (गोभिः) किरणैः (आवृतम्) आच्छादितम् (इन्द्रस्य) सूर्यस्य (वज्रम्) कुलिशमिव (हविषा) आदानेन (रथम्) यानम् (यज)॥५३॥

अन्वयः—हे विद्वंस्त्वं दिवः पृथिव्या उद्भृतमोजः परि यज वनस्पतिभ्य आभृतं सहः परि यज। अपां सकाशादोज्मानं परि यज। इन्द्रस्य गोभिरावृतं वज्रं रथं हविषा यज॥५३॥

भावार्थः—मनुष्यैः पृथिव्यादिभ्यो भूतेभ्यस्तज्जायाः सृष्टेश्च सकाशाद् बलपराक्रमौ वर्द्धनीयौ तद्योगेन च विमानादीनि यानानि निर्मातव्यानि॥५३॥

पदार्थः—हे विद्वन्! आप (दिवः) सूर्य और (पृथिव्याः) पृथिवी से (उद्भृतम्) उत्कृष्टता से धारण किये (ओजः) पराक्रम को (परि, यज) सब ओर से दीजिए (वनस्पतिभ्यः) वट आदि वनस्पतियों से (आभृतम्) अच्छे प्रकार पुष्ट किये (सहः) बल को (परि) सब ओर से दीजिए (अपाम्) जलों के सम्बन्ध से (ओज्मानम्) पराक्रम वाले रस को (परि) चारों ओर से दीजिए तथा (इन्द्रस्य) सूर्य को (गोभिः) किरणों से (आवृतम्) युक्त चिलकते हुए (वज्रम्) वज्र के तुल्य (रथम्) यान को (हविषा) ग्रहण से सङ्गत कीजिए॥५३॥

भावार्थः—मनुष्यों को चाहिए कि पृथिवी आदि भूतों और उनसे उत्पन्न हुई सृष्टि के सम्बन्ध से बल और पराक्रमों को बढ़ावें और उनके योग से विमान आदि यानों को बनाया करें॥५३॥