यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः २९/मन्त्रः ८
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान् |
आदित्यैरित्यस्य बृहदुक्थो वामदेव्य ऋषिः। सरस्वती देवता। त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥
पुनस्तमेव विषयमाह॥
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
आ॒दि॒त्यैर्नो॒ भार॑ती वष्टु य॒ज्ञꣳ सर॑स्वती स॒ह रु॒द्रैर्न॑ऽआवीत्।
इडोप॑हूता॒ वसु॑भिः स॒जोषा॑ य॒ज्ञं नो॑ देवीर॒मृते॑षु धत्त॥८॥
पदपाठः—आ॒दि॒त्यै। नः॒। भार॑ती। व॒ष्टु॒। य॒ज्ञम्। सर॑स्वती। स॒ह। रु॒द्रैः। नः॒। आ॒वी॒त्। इडा॑। उप॑हू॒तेत्युप॑ऽहूता। वसु॑भि॒रिति॒ वसु॑ऽभिः। स॒जोषा॒ इति॑ स॒ऽजोषाः॒। य॒ज्ञम्। नः॒। दे॒वीः॒। अ॒मृते॑षु। ध॒त्त॒॥८॥
पदार्थः—(आदित्यैः) पूर्णविद्याविद्भिः (नः) अस्मभ्यम् (भारती) सर्वविद्याधर्त्री सर्वथा पोषिका (वष्टु) कामयताम् (यज्ञम्) सङ्गतं योग्यं बोधम् (सरस्वती) प्रशस्तविज्ञानवती वाक् (सह) (रुद्रैः) मध्यमैर्विद्वद्भिः (नः) अस्मान् (आवीत्) प्राप्नुयात् (इडा) स्ताविका वाक् (उपहूता) यथावत् स्पर्द्धिता (वसुभिः) प्रथमकल्पैर्विद्वद्भिः (सजोषाः) समानैः सेविताः (यज्ञम्) प्राप्तव्यमानन्दम् (नः) अस्मान् (देवीः) त्रिविधा वाणी (अमृतेषु) नाशरहितेषु जीवादिपदार्थेषु (धत्त) धरत धत्त वा॥८॥
अन्वयः—हे विद्वन्! भवान् या आदित्यैरुपदिष्टोपहूता भारती नो यज्ञं सम्पादयति तया सह नोऽस्मान् वष्टु या रुद्रैरुपदिष्टा सरस्वती नोऽस्मानावीत् या सजोषा इडा वसुभिरुपदिष्टा सती यज्ञं साध्नोति। हे जना! ता देवीरस्मानमृतेषु दध्युस्ता यूयमस्मभ्यं धत्त॥८॥
भावार्थः—मनुष्यैरुत्तममध्यमनिकृष्टानां विदुषां सकाशाच्छ्रुता पठिता वा विद्यावाणी स्वीकार्य्या, न मूर्खाणां सकाशात्, सा वाणी मनुष्याणां सर्वदा सुखसाधिका भवति॥८॥
पदार्थः—हे विद्वन्। आप जो (आदित्यैः) पूर्ण विद्या वाले उत्तम विद्वानों ने उपदेश की (उपहूता) यथावत् स्पर्द्धा से ग्रहण की (भारती) सब विद्याओं को धारण और सब प्रकार की पुष्टि करने हारी वाणी (नः) हमारे लिए (यज्ञम्) सङ्गत हमारे योग्य बोध को सिद्ध करती है, उस के (सह) साथ (नः) हम को (वष्टु) कामना वाले कीजिए जो (रुद्रैः) मध्य कक्षा के विद्वानों ने उपदेश की (सरस्वती) उत्तम प्रशस्त विज्ञानयुक्त वाणी (नः) हम को (आवीत्) प्राप्त होवे, जो (सजोषाः) एक से विद्वानों ने सेवी (इडा) स्तुति की हेतु वाणी (वसुभिः) प्रथम कक्षा के विद्वानों ने उपदेश की हुई (यज्ञम्) प्राप्त होने योग्य आनन्द को सिद्ध करती है। हे मनुष्यो! ये (देवीः) दिव्यरूप तीन प्रकार की वाणी हम को (अमृतेषु) नाशरहित जीवादि नित्य पदार्थों में धारण करें, उनको तुम लोग भी हमारे अर्थ (धत्त) धारण करो॥८॥
भावार्थः—मनुष्यों को उचित है कि उत्तम, मध्यम, निकृष्ट विद्वानों से सुनी वा पढ़ी विद्या तथा वाणी को स्वीकार करें, किन्तु मूर्खों से नहीं, वह वाणी मनुष्यों को सब काल में सुख सिद्ध करने वाली होती है॥८॥