यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः २९/मन्त्रः ७
← मन्त्रः ६ | यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्) अध्यायः २९ दयानन्दसरस्वती |
मन्त्रः ८ → |
सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान् |
प्रथमेत्यस्य बृहदुक्थो वामदेव्य ऋषिः। अश्विनौ देवते। त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥
अथाऽध्ययनाऽध्यापने कथं स्यातामित्याह॥
अब पढ़ना-पढ़ाना कैसे हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
प्र॒थ॒मा वा॑ꣳसर॒थिना॑ सु॒वर्णा॑ दे॒वौ पश्य॑न्तौ॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑।
अपि॑प्रयं॒ चोद॑ना वां॒ मिमा॑ना॒ होता॑रा॒ ज्योतिः॑ प्र॒दिशा॑ दि॒शन्ता॑॥७॥
पदपाठः—प्र॒थ॒मा। वा॒म्। स॒र॒थिनेति॑ सऽर॒थिना॑। सु॒वर्णेति॑ सु॒ऽवर्णा॑। दे॒वौ। पश्य॑न्तौ। भुव॑नानि। विश्वा॑। अपि॑ऽप्रयम्। चोद॑ना। वा॒म्। मिमा॑ना। होता॑रा। ज्योतिः॑। प्र॒दि॑शेति॑ प्र॒ऽदिशा॑। दि॒शन्ता॑॥७॥
पदार्थः—(प्रथमा) आदिमौ (वाम्) युवयोः (सरथिना) रथिभिः सह वर्त्तमानौ (सुवर्णा) शोभनो वर्णो ययोस्तौ (देवौ) देदीप्यमानौ (पश्यन्तौ) समीक्षमाणौ (भुवनानि) निवासाऽधिकरणानि (विश्वा) सर्वाणि (अपिप्रयम्) प्रीणामि। ण्यन्ताल्लुङ्प्रयोगोऽयम् (चोदना) प्रेरणानि कर्माणि (वाम्) युवाम् (मिमाना) निश्चेतारौ (होतारा) दातारौ (ज्योतिः) प्रदीप्तिः (प्रदिशा) प्रकर्षेण बोधयन्तौ (दिशन्ता) उच्चारयन्तौ॥७॥
अन्वयः—हे विद्यार्थिनौ! यौ प्रथमा सरथिना सुवर्णा विश्वा भुवनानि पश्यन्तौ वां चोदना मिमाना ज्योतिः प्रदिशा दिशन्ता होतारा देवौ विद्वांसौ कुर्यातां यथा त्वमहमपि प्रयन्तथा वां युवां तौ प्राप्नुतम्॥७॥
भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्यार्थिनो निष्कापट्येन विदुषः सेवन्ते, ते विद्याप्रकाशं लभन्ते। यदि विद्वांसः कपटालस्ये विहाय सर्वान् सत्यमुपदिशेयुस्तर्हि ते सुखिनः कथं न जायेरन्॥७॥
पदार्थः—हे दो विद्यार्थियो! जो (प्रथमा) पहिले (सरथिना) रथ वालों के साथ वर्त्तमान (सुवर्णा) सुन्दर गोरे वर्ण वाले दो विद्वान् (विश्वा) सब (भुवनानि) बसने के आधार लोकों को (पश्यन्तौ) देखते हुए (वाम्) तुम दोनों के (चोदना) प्रेरणारूप कर्मों को (मिमाना) जांचते हुए (ज्योतिः) प्रकाश को (प्रदिशा) अच्छे प्रकार जानते तथा (दिशन्ता) उच्चारण करते हुए तुम को (होतारा) दानशील (देवौ) तेजस्वी विद्वान् करें, जैसे उनको मैं (अपिप्रयम्) तृप्त करता हूँ, वैसे (वाम्) तुम दोनों उन विद्वानों को प्राप्त होओ॥७॥
भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्यार्थी लोग निष्कपटता से विद्वानों का सेवन करते हैं, वे विद्या के प्रकाश को प्राप्त होते हैं। जो विद्वान् लोग कपट और आलस्य को छोड़ें, सब को सत्य का उपदेश करें तो वे सुखी कैसे न होवें॥७॥