५४ ब्राहोस्फुटसिद्धान्ते धद् घुवर विवरे ऽल्पे भवेदभेदयोग ’’ इत्यादि सिद्धान्तशिरोमणौ भास्कराचा यत्तथा च स्फुटा वसनेति, अथाचार्येण कथ्यते ग्रहयुतावपि लम्वन-स्थित्यर्ध विर्मदर्शी दिसवं सूर्यग्रहणवत् साध्यम् । सिद्धान्त शेखरे श्रीपतिना ग्रहयुतौ तत्साधनं पृथक् पृथक् प्रदर्शितं ययाग्रहयुतौ लम्बनानयनार्थं तिथिस्वरुपं कथ्यते । अब ग्रह युति में विशेष कहते हैं। हि. भा.-एवं दो ग्रहों के केन्द्रान्तर मानेक्यावं (व्यासार्धयोग) से अधिक रहे तो युति नहीं होती है, मानवाघ से अल्प केन्द्रान्तर में स्थित्यर्ध और विमर्दार्धे साधन करना अथ कदम्ब प्रोतीय युधत काल ही को गर्भयामान्त काल मान कर सूर्य ग्रहणोक्त विधि से वे (स्थित्यर्ध और विमदंबं) साघन करत । तारारूप ज ग्रह (मङ्गलादि) है उनकी और नक्षत्र की जो युति होती है उसमें भी यही क्रिया होती है । कदम्बप्रोतीय युतिकाल में सूर्य प्रइणोक्त विधिवद् असकृद (बारबार) लम्बन साधन करना, दोनों ग्रहों की अपनी अपनी नीतिकला से तात्कालिक स्पष्टशर साधन कर उन दोनों का एक दिक्षा में अन्तर करने से भिन्न दिशा में योग करने से स्पष्टशर होता है। उसी (स्पष्टशर) को केन्द्रान्तर कल्पना करना,ऊध्वंस्थित ग्रह के अधःस्थ (नीचस्थित) ग्रह को छादक मानना, इस तरह सूर्यग्रहण की तरह सब बातें मानकर स्पष्टस्थित्यर्ध और स्पष्ट विमर्दीध साधन करना, मानैक्यार्धा से केन्द्रान्तर को अधिक रहने से पूर्व सावित समप्रोतोय युति प्रतिस्पष्ट नहीं होती है। इसलिये स्फुट युतिसाधन के लिये कहना युक्तियुक्त है इति । १६-२१॥ उपपत्ति ‘‘मानैऋयावद् द्युचर विवरे स्यान्न भेदोऽधिके तु न्यूने भेदो ग्रहणवदिहच्छादकोऽधस्तनः स्याव’ इत्यादि सं० उपपति में लिखित सिद्धान्तशेखरोक्त श्लोक से तथा मानैक्यार्धाद्वुचर विवरेऽल्पे भवेदभेदयोगः” इत्यादि सं० उपपत्ति में लिखित सिद्धान्तशिरोमणिस्थ भास्करा चाय्क्त इलोक से उपपत्ति स्फुट ही है इति ।।१६-२१॥ ‘स्वोदयत् समकलौ च यावता खेचरौ च भवतामनेहसा । तावती भवति भेदसंयुतौ लम्बनादि विधिसिद्धये तिथिः' । वि. भा.– स्वोदयात् (स्त्रविम्बोदयकालात्) यावता ऽनेहसा यत्प्रमित घट्यादिकालेन खेचरो ग्रहौ समकलो समलिप्तिको, भवेतां । भेदसंयुतो ग्रहयो गेंद युद्धे संयुतौ योगाधं लम्बनादि विधिसिद्धये लम्बननतिस्थित्यर्धादि साधनाथं तिथिर्भवतीति ॥ अत्रोपपत्तिः सूर्यग्रहणे लम्बनवनत्याद्यानयनाय सूर्योदयादमान्तं यावचया तिथिप्रमाणं
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