४६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते नरपते राज्ञो विस्मयकरणाय दर्शयेत् । इदं दर्शनमन्यैरार्यभटादिभिर्गणित- विद्वद्भिद्रेष्करमसाध्यमिति अत्रोपपत्तिः छायाक्षेत्रसंस्थयैव स्फुटा कि ग्रन्थगौरवेण ॥१५-१६-१७। वि. भ.-त्रिप्रश्नोक्त्या (त्रिप्रश्नाधिकारकथितनियमेन) शङ्कोः (अभीष्ट ग्रहशङ्कःमानं ज्ञात्वा दिङ्मध्ये तस्य शोश्छायाग्न यथा पतेत्तथा पूर्वापरतो (पूर्वापररेखातः) दक्षिणे उत्तरे वा तं शी स्थापयित्वा स्थिरः कार्यः। शसम एको वंश । छायाग्रात् (दिङ्मध्यात्) शङ्क्वग्रगतोर्घसूत्रवशादग्र वंशद्वितयं (द्वितीयबंशं) कृत्वा स्थिरं कुर्यात् तत् प्रथमं वशमानं दृष्ट्या समं कार्यम् । अन्यत् (द्वितीयवंशमानं) तदपेक्षयाच्चतर कायं स् । दिङ्मध्यात् प्रथमवंशाग्रगत कर्णसूत्रं वर्धनेन द्वितीयवंशे यत्र लगति तत्र दृढं बध्नीयात्, तदा प्रथमवंशा (शई) ग्रगत- दृष्ट्या द्वितीयवंशाग्रगं चन्द्रंग्रहणं वा ग्रहयुतं लोकस्य (जनस्य) नरपते (राज्ञः र्वा विस्मयकरणाय गणको दर्शयेत् । अन्यैः (आर्यभटादिभिः) गणितविद्भिः (गणितज्ञ ः) इदं दर्शनं दुष्करं (असाध्यं) इंत ॥१५-१६१७॥ अत्रोपपत्तिः छायाक्षेत्रं हृदि निधाय विज्ञानभाष्यदर्शनेन स्पष्टैवास्तीति विज्ञ भृशं विभावनीया ।१५-१६-१७ अब चन्द्रग्रहण-ग्रहयुति आदि देखने के प्रकार को कहते हैं। हि. भार- त्रिप्रश्नाधिकार में कथित विधि से इष्टकाल में ग्रहशङ्कु का मान जान कर दिङ्मध्य (दिशाओं के मुख्य याने केन्द्र) में उस शङ्कु का छायाग्न जैसे पतित हो वैसे पूर्वापर रेखा से उत्तर या दक्षिण में उस शङ्कु को रख कर स्थिर करना । शकु के बराबर प्रथम वंश माननाः । छायाग्र (दिङ्मय) से शङ्क्वग्रगत ऊध्वैसूत्रवश से आगे दूसरे वंश को स्थापन कर स्थिर करना चाहिये । उस प्रथम वंश मान को दृष्टि से समान करता•। उसकी अपेक्षा द्वितीय वंशमान को उच्चतर (अतिशय उच्च) करना चाहिये। दिङ्मध्य से प्रथम वंशानुगत ऐसूत्र को बढ़ाने से द्वितीय वंश में जहां लगे वहां खूब मजबूती से बांध देना चाहिये. तब प्रथम वंशा (शङ्कु) ग्रगत दृष्टि से द्वितीय वंशाग्रगत चन्द्र को, ग्रहण को वा ग्रहयोग को गणक (ज्योतिषिक) लोगों को वा राजा को आश्चर्ये चकित करने के लिये दिखावे; आर्यभट आदि गणितज्ञों से यह दिखाना असाध्य है। इति. ॥१५१६१७ उपपति शया क्षेत्र क हृदय में रखकर हिन्दी भाष्य देखने से स्पष्ट ही है । इसको विज्ञ वोग रैि इति ॥१५-१६-१७
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