सूर्यग्रहणाधिकारः ४४६ प्रकारान्तरेणेदं नत्यानयनमुक्तम् । अत्र रविचन्द्रनती समे स्वीकृते आचार्येणेति । २२-२३-२४।। अब लघु कर्म से लम्बन और गति के साधन को कहते हैं। हि.भा.- राशित्रय रहित लग्न (विविभ लग्न) से जो ग्रंश हो उसका पर अक्षांश का एक दिशा में योग पर भिन्न दिशा में अन्तर करने से स्वल्पाक्षांश देश में याम्योत्तर वृत्त के आसन्न में वित्रिभ के रहने से वित्रिभ नतांश होता है, इस को तीन राशि में घटाने से जो होता है उसकी ज्या वित्रिभशङ्कू है । त्रिज्याघं (त्रिज्या का आधा) वर्ग का वह (वित्रिभशङछेद (हर) होता है, त्रिज्याधं वर्गों में छेद (हर) से भाग देने से जो फल होता है उससे वित्रिभलग्न और रवि की अन्तरज्या को भाग देने से लम्ध व (प्रकारान्तर से) घटिकादिक लम्बन होता है , वित्रिमलग्न की क्रान्ति, वित्रिभ के शरांश पर अव के एक दिशा में रहने से योग पर भिन्त दिशा में रहने से अन्तर करने पर जो शेष रहता है उसकी ज्या चन्द्रकुक्षष होता. है । उस (ज्या) को रवि पर चन्द्र के मध्य गत्यन्तर से गुणा कर पन्द्रह गुणित त्रिज्या से भाग देने में प्रवनति (पट्टनति) होती है इति॥२२-२३-२४ उपपत स्वल्पान्तर से याम्योत्तरवृत्त ही में बित्रिभ का मान कर दिमाषकल की तरह वित्रिभनतांश और उन्नतांश साघन करना। उन्नतांश ज्या=वित्रिभशकूतब “त्रिज्या (८.वि), विशं कृतेश्चक्षुर् " इत्यादि सम्मनघटी णशङ्कुंहृतायाःसे =दया त्रि _ज्या ()_ज्या (=वि)-८दि) इससे स्पष्ट सम्बनानयन उपपान र-विज्या ( (झ) ४ विलं होता है. । पूर्व साधित वित्रिभनतांग में वित्रिभखार को संस्कार करने से विमण्डल पर्यन्त बम्बवृक् क्षेप गपश होता है, स्वल्पान्तर से इसके समान ही रवि ने इनक्षेपं चापांक भी स्वीकार कर लिये गये । इसलिये दोनों (रवि और चन्द्र) का दृश्क्षेप बराबर इस्रा । तव "शविंशखिमप्यतिगुणे’ इत्यादि से रवि और चन्द्र के पूर्वहgष नतिसाधन फ़र क्षेत्र का मन्त्र अवनति (टनति) होती है। यहां =िवित्रि, न्या (वि)=
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