चन्द्रग्रहणाधिकारः ८९ चन्द्रशरः=कोटिः। भर=भुजः, एतच्चापीयजात्यत्रिभुजं सरलतारकं स्त्रीकृत- माचार्येण, तदा /कोटि ' +भुज' =कर्ण, पश=इष्टग्रातः । भूपचन = भूभा- व्या३+(व्या३मानैक्यार्ध= भूपपर्च+पश = भूव+इष्टग्रास =कर्ण+ इष्ट शास=मानंद्याधे२.मानंक्यार्थ--कणं ==इष्टप्रासः । सिद्धान्त शेखरे “इष्टन्यूनस्थितिदलगुणा भुक्तिविश्लेपलिप्ता पक्ष्याभक्त भवति हि भुजः कोटिरिष्टेन्दुवाणः। तद्वर्गाक्योद्भवमपि पदं कर्ण एतेन हीनं मानैक्यार्थं स्फुटमिह भवेद्वाञ्छितं छन्नमानस' ऽनेन धोपतिना, सिद्धान्त शिरोमणौ ‘कोटिश्च तत्काल शरोऽथकोटीदोर्वर्गयोगस्य पदं श्रुतिः स्यात् । मानैक्यखण्डं श्रुतिजतं सद्ग्रासप्रमणं भवतोऽनाले” इलोकेनानेन भास्कराचार्येणाप्याचार्यो- क्तमेवोक्तमिति ॥ ११-१२ ।। अव इष्टग्रासानयन को कहते हैं । हि. भा. -रवि और चन्द्र के गत्यन्तर को इष्ट रहित स्थित्यर्ध घट से गुणा कर साठ से भाग देने से भुज होता है, इस फल करके सूर्य, चन्द्र और पात को चालन देकर तात्कालिक चन्द्रशर साधन करना वह कोटि हैं उन दोनों (भुज और कोटि) का वर्गयोग मूल कर्ण होता हैं, मानैक्यार्ध (छाद्य और ऊदक बिम्ब के व्यासाची योग) में से कर्ण को घटाने से जो शेष रहता हैं वह इष्टग्रास होता है इति ॥११-१२ ॥ सरों के बाद जितनी इष्ट घटी में ग्रास-ज्ञान अपेक्षित हो उस इष्ट घटी को स्थित्यर्ध में से घटा देना, शेष से अनुपात करते हैं, यदि साठ घटी में रवि और चन्द्र की गत्य न्तर कला पाते हैं तो इष्टोन स्थित्यर्धे घटी में क्या इससे जो फल होता हैं वह भुज है, अनुपातागत फल से चालित रवि, चन्द्र और पात से तात्कालिक चन्द्र शर साधन करना व्ह कोटि हैं इन दोनों (भुज और कोटि) का वर्गयोग मूल कण होता है, मानैक्यार्ध में से कर्ण को घटाने से इष्ट ग्रास होता हैं, जैसे संस्कृतोपपत्ति में लिखित (क) क्षेत्र को देखिये, चं=चन्द्र केन्द्र, भू–भूभाकेन्द्र, भूचं=भूभा और चन्द्र के केन्द्रान्तर=कर्ण चर=चन्द्रकेन्द्रोपरिगत कदम्बश्रोतवृत्त में चन्द्रशरकोटि, झर=भुज, भूरचं चापीय जात्य त्रिभुज को सरल जात्य त्रिभुज स्वीकार कर/भुज'+कोटि' =कर्ण, पश=इष्टप्रास, भूप+वंश=भूभाव्याई +चंब्याई-मानैक्यार्षे=भूप+पच+पदा=भूच+इष्टग्रास = कर्ण+इश । अतः मानै- क्यावं -कर्ण =इष्टग्रास, इससे आचायक्त उपपन्न हुआ । सिद्धान्त शेखर में “इष्ट न्यून स्थिति दलगुणा मुक्तिविश्लेषभक्ताः" इत्यादि से श्रीपति तथा “कटिश्च तत्कालशरेऽथ कोट' इत्यादि से सिद्धान्त-शिरोमणि में भास्करा चार्य ने भी आचार्योंक्त के अनुसार ही कहा है, परन्तु यह आनयम ठीक नहीं हैं उपपति देखने ही से सष्ट है इ*ि ॥ १११२ ।।
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