३$© ग्रहयुत्यधिकारः उपपत्ति मध्यान्हू से पूर्व जहां रवि हैं वहां से उदयक्षितिज पर्यन्त दिनगत काल है, और रवि मे अस्तक्षितिज पर्यन्त दिन शेष काल है, यहां दिन शेष काल से दिनगत काल अल्प है। इसलिये वही (दिनगत काल) उन्नत काल होता है, दिनगत काल से दिनशेष काल के अल्प रहने से बही (दिनशेष काल) उन्नत काल ( क्षितिज वृत्त और अहोरात्र वृत्त के संम्पातोपरि गत ध्र.वश्रोतवृत्त और नाड़ी वृत्त के सम्पात से व्युपरिगत ध्रुवश्रोतवृत्तनाड़ी वृत्त के सम्पात पर्यन्त नाडीवृत्त में) होता है, उत्तर गोल में क्षितिजभृत्त और अहोरात्रवृत्त के सम्पातोपरिगत श्रव प्रोतवृत्तनाडीवृत्त में पूर्वस्वस्तिक से चरान्तर पर नीचा लगता है इसलिये उन्नन काल में से चर को घटाने से पूर्व स्वस्तिक से रव्युपरिगत ध्रुव श्रोतवृत्त नाडीवृत्त के सम्पात पर्यन्त नाडीवृत्तीय चाप चापसूत्र होता है इसकी ज्या सूत्र संज्ञक है, दक्षिण गोल में क्षितिजघृत और अहोरात्र वृत्त के सम्पातोपरिगत ध्रुवप्रोतवृत्त नाडीवृत्त में पूर्वस्व स्तिक से चरान्तर पर ऊपर लगता है इसलिये उधत काल में चर को जोड़ने से सूत्रचाप होता है इसकी ज्या ( व्युपरिगत ध्र वप्रोतवृत नाडीवृत्त के सम्पात से पूर्वापर सूत्र के ऊपर लम्बरेखा) सूत्र है, ध्रुव से पूर्व स्वस्तिक पर्यन्त उन्मण्डल में नवत्यंश, ध्रुव से रव्युपरिगत ब्रुवप्रोतवृत्त नाडीवृत्त के सम्पात पर्यन्त ध्रुवप्रोतवृत्त में नवत्यंश, नाडीवृत्त में सूत्रचाप, इन तीनों भुजों से उत्पन्न त्रिभुज का ज्याक्षेत्र (त्रिज्या कणं, सूत्र भुज, सूत्र कोटिज्या कोटि) घाव से रविपयंन्त द्युज्याचाप, ध्रुव से उन्मंण्डलाहोरात्रवृत्त के सम्पात- पर्यन्त उन्मण्डल में छूज्याचाप, अहोरात्रवृत्त में ध्रुवप्रोतवृत्त और अहोरात्रवृत्त के अन्त गंत चापइन तीनों भुजों से उत्पन्न त्रिभुज के ज्याक्षेत्र (अहोरात्र वृत्त के गर्भकेन्द्र से रवि पयंन्त द्युज्या कणं, रवि से निरक्षोदयास्त सूत्र के ऊपर लम्ब कला संज्ञक भुज, कलामूल से अहोरात्रवृत्त के गर्भ केन्द्र पर्यन्त कोटि) का सजातीय है इसलिये अनुपात करते हैं यदि त्रिज्या में सूत्र पाते हैं तो वृष्या में क्या इससे कला आती है, इ. द्यु =कला, रवि से स्वोदयास्त सूत्र के ऊपर लम्ब रेखा इष्टहृति है, स्वोदयास्तसूत्र और निरक्षोदयास्तसूत्र का अन्तर इष्ट इति की खण्ड कंज्या है, उत्तरगोल में निरक्षोदयास्तसूत्र से स्वोदयास्त सूत्र नीचा है इसलिये कला में कुज्या को जोड़ने से इष्ट कृति होती है, दक्षिण गोल में कला में से कुज्या को घटाने से इष्ट हूति होती है, त्रिज्या कर्ण, अक्षज्या भुज, लम्बज्या कोटि इन तीनों भुजों से उत्पन्न एक प्रक्षक्षेत्र, तथा इष्टहृति की, इट्टशंकु कोटि, शंकुतल भुजइन तीनों भुजों से उत्पन्न द्वितीय अवक्षेत्र, दोनों अक्ष क्षेत्र सजातीय हैं इसलिये अनुपात करते हैं यदि त्रिज्या में लंघ्या. इंट्स सम्बच्या पाते हैं तो इषुहत में क्या इससे इशृशंकु प्रमाण आता है इस, = इवसे आचार्योंक्त खडपन्न होता है, सिद्धान्त शिरोमणि में भास्कराचार्य भी "भयोशतादून ताबरेल' इत्याधिं तस् तोपपत्ति में लिखित श्लोक से आचद्भक्तानुरूप हो कहते हैं इति । २-२६॥
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