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पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/२६८

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स्पष्टाधिकारः अव योगानयन को कहते हैं। हि- भा. रवि और चन्द्र की यो गकला (गतियोग कला) को आठ म ८०० से भाग देने से लब्ध गत योग होते हैं। गतकला और गम्यकला को साठ से गुणा कर गति योग द्वारा भाग देने से गतनाड़ी और गम्य नाड़ी होती है इति ॥ ६२ ।। ८०० ८० ० रवि और चन्द्र के गति योग से योग बनते हैं, जब रवि और चन्द्र के गतियोग= २१६०० तव सत्ताईस २७ योग होते हैं, इससे अनुपात करते है, यदि रवि और चन्द्र के गति योग कला २१६०० एतत्त,ल्य में सताइस योग पाते हैं तो इष्ट गति योगकला में क्या इसे २७x गतियोगकगतियोगक आता , = गतयोग प्रमाण है == गतयो+ - र यहां शेष २१६०० वर्तमान योग के गतावयव रूप है। उसको हर ८०० में से घटाने से वर्तमान वोग का भोग्यावयव रूप होता है, तव अनुपात करते हैं यदि शतियोग कला में साठ ६० घटी पाते हैं तो गतयोगकला में और गम्य योग कला में क्या इससे गत नाड़ी और गम्य नाड़ी आती है । सिद्धान्तशेखर में श्रीपति ने ‘रविविधुयुतिलिप्ता इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में श्लोक से आचार्यो क्तानुरूप ही सब कुछ कहा है ॥ ६३ ॥ इदानीं रविचन्द्रांतरमाह राश्यंशकलाविकलाः स्फुटमासान्तोऽशलिप्तिका विकलाः। पक्षान्ते तिथ्यन्ते समा रवीन्द्वोः कलाविकलाः ॥ ६४ ॥ वा. भा. - अमावास्यान्ते स्फुटार्कचंद्रयो : किमप्यन्तरं भवति । तस्मात्त- राश्यादय ः समा एवोपयुपरिस्थितत्वादुभूमध्यस्थितस्य द्रष्टु : पक्षान्ते चार्धवक्रां- तरितौ द्वावपि भवतोऽतस्तत्र भागादयश्च समा एव राशयश्चभिन्नाः प्रतिदिनमभे वि. भा.-स्फुटमासान्ते रवीन्द्वोः (रविचन्द्रयोः) राश्यंशकलाविफलाः समा भवन्त्यर्थाद्राश्याद्यवयवाःसमा भवन्ति, पक्षान्ते रविचन्द्रयोरंशलिप्तिका विकलाः समा भवन्त्यर्थाद्रविचन्द्रवंशाद्यवयवेन तुल्यौ भवतः । तियन्ते रवीन्द्वः कला विकलाः समा भवन्तीति ।। ६४ ।। रविचन्द्रयोरन्तरांश यदा द्वादशांशसमास्तदैका तिथिर्भवति, स्फुटमासान्ते