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पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/२१६

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स्पष्टाधिकार १&& मथ्यमार्कोदयकालिक ग्रट्स में भुजान्तर फल को ऋण करने ¥ के उदयनिक ग्र होते हैं, घनत्मक रीवमन्दफल ने मध्यमाकॉदय से फुर्योदय पीछे इंक है इन्द्रदिये मध्यम प्रकइय कालिक ग्रह में भुजान्तर फल को धन करने में स्त्रष्टा ऋदयकालिक ग्रह होते है, अर रनंदन के ग्रह और एष्य दिन के न है के अगर ( दिनकर स्पष्ट प्रहर ) वर्तमान दिन में स्पष्टगति होती है अर्थान् अद्यसुन ( आज के ) स्पष्टग्रह और श्वस्तन (कल के ) स्पष्टग्रह का अन्तर स्पष्टंति होती है, यहाँ भगण कलाक़ब्द से अहोरात्रसु समझना चाहिये इति । ? २६ ।। उपत्ति मध्यमावोदयकालिक ग्र ह में जितना संकर करने मे स्फुटाकदयकालिक प्रह होते हैं उसी को भुजान्तरकर्म कहते हैं । अहर्गण से माथित ग्रह श्राचार्य के मत से लङ्का सूर्योदय काल में मध्यम होते है, अर्थात् मध्यमादयकालीन होते हैं, स्फुटार्कोदय कालीन ग्रह अपेक्षित हैं, म६४मार्क और स्फुटकं का अनर रविमन्दफल कला है, इसके बराबर ही रविमन्दफनोत्पन्नामु आचार्यों ने स्वीकर किये हैं, अव अनुTIत करते हैं यदि अहोरात्रासु में ग्रहगति कला पाते हैं तो रविमन्दफलामु में क्या इस अनुपात से रविमन्द फलासुसम्बन्धिनी ग्रहगति आती है, मन्दफल ऋण रहने से मध्यमकदय से पहले ही स्फुटार्कोदय होता है इसलिये अनुपातागत रविमन्दफसुसम्बन्धि की गति को मध्यमाकं में घटाने से स्फुटार्कोदय काल में स्फुटाकं होते हैं । इसी तरह उस गति को ग्रह में घटाने से स्फुटार्कोदय फालिक्र ग्रह होते हैं । धनात्मक रत्रिमन्दफल में मध्यमाकोंदय से स्फुटाकदय पीछे होता है इसलिये पूर्वानीन चालनफल को म व्य-र्क में जोड़ने से स्फुटाकोदयकालिक स्फुटार्क होते हैं, ग्रह में चलनफल को जोड़ने वे स्पष्टार्कोदयकालिक ग्रह होते हैं, यहां स्थूलता स्पष्ट ही हैं योंकि रविमन्दफलकल के बराबर ही रविमन्दफलासु को आचःयं ने स्वीकार किया है। दूसरी दुटि इसमें यह है कि मध्यमाकदयकालिक ग्रह में पूर्वानुपातागत रविमन्दफलासुसम्बन्धिनी गति का संस्कार करने से स्फुटार्कोदयकालिक ग्रह नहीं हो सकते हैं क्योंकि रविमन्दफलासु के प्रन्तर्गत भी प्रह की कुछ गति होगी उसका ग्रहण आचार्यों ने नहीं किया है वास्तव भुजान्तर ज्ञान के लिये उस विधि का आश्रमण करना चाहिये जो कि पहले वास्तवउदयान्तर आनायं दिखलायी गई है, वास्तव उदयान्तर साधन में प्राचीनोदयान्तर के स्थान पर प्राचीन भुजान्तर लेना चाहिये ओर सब विषय बराबर ही है, सूर्यसिद्धान्तकारादि किसी भी आचार्यों के भुजान्तरकर्मसाघन ठीक नहीं है. पहले लिखी हुई युक्ति ही से स्पष्ट है इति ॥ २८ ॥ इदानीं नतकर्मवशेन रविचन्द्रयोर्गतिफलमाह क्षयधनहानिधनानि प्राक् पद वादन्यथा रवेरिन्दोः । प्राग्वत् पश्चात्स्वगतौं घनरयक्षयधननि प्राक् ॥ ३० ॥ ३. भा.--इदानीं परिध्रयतरोभन्न वय केन्द्रफलभुक्तिफलस्य धनक्षयप्रतिपा-