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पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/१७४

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> १५७ मन्दोच्चाद्विशोध्य नेपं मन्दफेन्द्रं कथ्यते भवता सृभिदुद्नेछ, - श्रन्थमवनत्र चनवदेवास्ति टिनशेखरे श्रीपतिना सिद्धान्डलिरेम भावस्यइयेंग चाऽऽत्र मेव कथ्यत इति ॥१२॥ अब मन्दकेन्द्र और मीत्रकेन्द्र की तथा केन्द्र-पर केन्द्र कोटिज्या की परिभाषा कहते हैं हि- भा.-मध्यमग्रह में मन्दोच को घटाने से शेष भन्दकेन्द्र होता है, शीघ्रोच्व में मन्द स्पष्ट ग्रह को घटाने से शेष शीत्र केन्द्र होता है, विषम पद में गत चाप की ज्या भुजच्या ककुलाती है, गन्य (एष्य) चाप की ज्या कोटिज्या कहलाती है, स्म पद से इसके विपरीत अर्थात् गम्यचापज्या भुजध्या मर गतचापज्या कोटिज्या होती है इति ॥१२॥ उपपत्ति भूकेन्द्र से मन्द प्रनिवृत्त और शत्र प्रतिवृत्त का जो दूरतर प्रदेश (अर्थात् उच्चरेखा और वधत भूकेन्द्र ग्रहगोलकेन्द्रगतरेखा के योग बिन्दु) हैं वे क्रमशः मन्दोच्च और शत्रोच्च कहलाते हैं, मन्द प्रतिवृत्त में गणितागत मध्यम ग्रह जह है भूकेन्द्र से तगत रेखा की: प्रतिवृत्त में जहाँ लगती है वही मन्दस्पष्ट ग्रह है, मन्दोच्च से मध्यम ग्रहपर्यन्त मन्द प्रति- वृत्तीय चाप मन्दकेन्द्र है, शीघ्रोच्च से मन्दस्पष्टग्रहपर्यन्त शत्र प्रतिवृत्तीय चाप शीघ्र- केन्द्र है, मन्दोच्च की गति मध्यमग्रह गति से अल्प होने के कारण मध्यमग्र-मन्दोच्च= मन्दकेन्द्र, तथा मन्दस्पष्टग्रह की गति से शीघ्रोच्च गति के अधिक होने के कारण शीघ्रोच्च -मन्दस्पष्टग्र=शीत्रकेन्द्र, ग्रहगोल केन्द्र से उच्चरेखा के ऊपर नम्बरेख करने से उच्च रेखा और लम्ब रेखा से मन्द प्रतिवृत्त के समान चार खण्ड (नवत्यंश के बराबर) होते हैं. मन्दोच्च से सव्य क्रम से चार पद कल्पना करना । प्रथम पद में मन्द प्रतिवृत्त में जहाँ ग्रह है उसका और उच्चरेखा का लम्वरूप अन्तर भुजज्या है, ग्रह से तिर्यक् रेखा (मन्दगोल केन्द्र से उच्चरेखा के ऊपर लम्ब रेखा) के ऊपर लम्बरेखा कोटिज्या है, ग्रह ज्यों-ज्यों पदान्ताभिमुख जाते हैं त्यों-त्यों भुजज्या उपचीयमान होती है और कोटिज्या अपचीयमान होती है, पदान्त में भुजष्या परम (त्रिज्यातुल्य) होती है और कोटिज्या का अभाव होता है, उससे आगे द्वितीय पद में ग्रह ज्यों-ज्यों आगे जाते हैं त्यों-स्यों भुजज्या अपचीयमान होती है और कोटिज्या उपचीयमान होती है, पदान्त में भुजज्या का अभाव होता है और कोटिज्या परम (त्रिज्या तुल्य) होता है इसलिए "प्रयुज़ि गतयेययोर्युजिपदेऽन्यथा बहुकोटिज्ये यह आचार्योंक्त युक्तियुक्त है, इसी तरह तृतीय पद और चतुर्थे पद में भी विचार करना चाहिए, सूर्य सिद्धान्त में 'अहं संशोध्य मन्दोच्चात्तथा शीश्ना विशोध्य च' इत्यादि से मन्दोच्च ही में मध्यम ग्रह को घटाकर शेष को भन्द केन्द्र कहते हैं, और सब कुछ मचायोक्तवद् ही है, सिद्धान्तशेखर में श्रीपति और सिद्धान्तद्विरोधि में भास्करात्रायें भी आचार्योंक्त ही । को कहते हैं इति ॥१२॥