स्पष्टाधिकारः १४७ अत: (ज्याइ-ज्याप्र) (ज्याइ+ज्याप्र)=०x(ज्याइज्याशी)=०४अग्नज्या ०x(ज्याइ +ज्याप्र) =अग्रज्या=ज्याइtज्याप्र=अग्रज्या, लुप्तभिन्नसमीकरण से अग्रज्या का मान समौचीन ही आता है, अतः संशोधकोक्त प्रकार समीचीन ही है, यह सिद्ध हुआ । यहां म.म. सुधाकर द्विवेदी जी ने अग्रज्या और पृष्ठ के योग के सम्बन्ध से अग्रज्या के ज्ञानार्थं विवि दिखलायी है, जैसे इष्टचाप =इ। प्रथमच प=प्र, ज्या (इ-प्र)=पृष्ठज्या ज्या (इ+g) =अग्रज्या तव ज्या (इ--प्र)+ज्या (इ+प्र)=पृष्ठज्या+अग्रण्या, ज्याइ x कोज्याप्र–ज्याप्र x कोज्या इ चाप कोरिष्टयोदञ्चैमिथ:कोटिज्यकाहते इत्यादि से ज्याइ कोज्याप्र+ज्याप्र x कोज्याइ_२ ज्याइ कोज्याप्र _२ ज्याइ(त्रि-ज्याउप्र), =__२ज्याइX ज्याउभ ज्याइXज्याउप्र २ ज्याइ २ (ज्याइ त्रि =२ (याह-ज्व)=३ (या-शब) = (याइ-)=पृष्ठज्या+अग्रज्या, अत: २ (ज्याइ -साबु ) ज्या २ -= पृष्ठष्याः अग्रज्य । इससे द्विवेदी जी का सूत्र ‘जीवा स्वसप्तारियुगांशहीना इत्यादिजो संस्कृतोपपत्ति में लिखा गया है, उपपन्न हुआ । आचार्य (ब्रह्मगुप्त) के मत में श्रिया=३२७०, इस त्रिज्या से भी प्रथमोक्रमज्या=७ अतः पूर्वोक्त सूत्र से इनकी पठित ज्यामों में किसी इष्टज्या से अग्रज्या का ज्ञान पूर्ववत्र होता है, इति ॥३-८॥ केषाञ्चन्मतं तत्प्रकारश्च ‘पृष्ठज्या यत्र शून्या प्रथमगुणसमाऽभोष्टचापज्यका स्यादग्रज्या नैव सिध्य युदितगणिततस्तत्र संशोधकस्य । शून्यत्वादिष्टज्याप्रथमगुणवियोगैक्यधातस्य तस्मात् दुष्टोऽयं तत्प्रकारो गणितमतिमता वेदितव्यो बुधेने” ति केनायुक्तवचसा दुष्टोऽयं प्रकार इत्यधिक्षिपति कश्चित् । वस्तुतो विचार्यमाणे यत्र भिन्ते भाज्यभाषतगताव्यक्तराशेर्यस्मिन्कस्मिन्नपि
पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/१६४
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