१४६ ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते से उनसे पूर्व और अग्निम (पृष्ठज्या और अग्रज्या) ज्याओं के धातानयन करके उस घात में पृष्ठज्या से भाग देने से अग्रिमज्य होती है और अग्रज्या से भाग देने से पृष्ठज्या होती है, दिखलाते हैं जैसे इष्टचाप=इ, प्रथमचाप=प्र, ज्या (इ-प्र)=पृष्ठज्या ज्या (इ+g) = अग्रज्या, दोनों के घात करने से ज्या (इं—g)x ज्या (इ+प्र)=पृष्ठज्या xअग्रज्या चापयोरिष्टयोदज्यं मिथः कोटिज्यकाहते इत्यादि से (ज्याइxकोज्याभ्र-ज्याप्तxफोज्याङ(ज्याइx शोगान्तर कोज्याप्र+याप्त कोज्याइ त्रि ज्याइx कोज्याश्र- ज्यप्रकोज्या'इ. धात वगन्तर के बराबर होता है, इस नियम से ज्या'इ (त्रि-ज्याप्र)-ज्यापु (त्रि-ज्या’३) त्रि ज्या'इxत्रि' - ज्याइxज्याप्र–ज्याप्र x त्रि+ज्याप्र ज्या'इ _ त्रि ज्यइx त्रि-ज्याप्र ऋत्रि'_त्रि(ज्याङ-ज्याप्र == ==ज्या 'इ--ज्या प्र == पृष्ठज्या x त्रि अग्रज्या, ३४३८ त्रिज्या में स्वल्पान्तर से ज्याप्र=५०५६० . ज्याइ--५०५६०= ज्याइ-५०५६० ज्याइ-५०५६० - पृष्ठज्याॐ अग्रज्या इसलिए =अग्नज्या, व अग्रज्य इस से ‘ज्यावर्गात्खरमाक्षाभ्रवाणोनाल् इत्यादि ’ संशोघकोक्त उपपन्न हुआ। यहाँ प्रचयाँक्त प्रथमज्या वश से पृष्ठज्या और अग्रज्या के घात से पूर्ववत् पृष्ठज्य और अग्रज्या का ज्ञान हो जायगा ।,संशोधकोक्त प्रकार का खण्डन किसी ने अधोलिखित युक्ति से किया है, ज्या(इ--प्र)४ ज्या (इ+प्र)=पृष्ठज्या ४अग्रज्या=ड्याइ-ज्याप्रयहाँ यदि इष्टचा==प्रवातब ज्याइ-ज्याप्र= ० ४अग्रज्या ज्या इ=:अग्रज्धाः = ज्या'इ- उपाप्र = अनन्त; परन्तु इष्टचाप और प्रथमचाप के बराबर रहने से अग्रज्यामान अनन्त के बराबर नहीं होना चाहिए इसलिए यह प्रकार ठीक नहीं है । लेकिन यहाँ किसी ने जो खण्डन किया है वह ठीक नहीं है, संशोघकोक्त प्रकार ठीक ही है जैसे:- ज्याइ - ज्याप्र=पृष्ठज्या x प्रमृज्या, यदि इष्टचाप=प्रथमचाप तब ज्या (ई-)=०= पृष्ठज्या, इसलिए एषा'इ--ज्याप्रः =०४अप्रज्या, परन्तु वर्गान्तर योगान्तरघात के बराबर होता है । -"
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