८५ रेखादेशाक्षांशयोजनानि = भूपरेखाक्षांश रे-ख-रेखस्वदेशयोरन्तरयोजनानि । ३६० / अत्राचार्येण रे-ल-ख त्रिभुजं सरलजात्यं स्वीकृतम् । तत्र रेल पूर्वापरान्तरं देशान्तर योजनतुल्यम् । एतदानयनं क्रियते रेख—लख रेख३– १ भूष ( स्वाक्षांश--रेखाक्षांश ) != रे-ल, ततोऽनुपातो यदि स्फुटपरिधिना ग्रहगतिर्लभ्यते तदा देशान्तरयोजनैः किमित्यनु पातेन यत्कलात्मकं फलमागच्छति तद्रेखातः पूर्वदेशे पश्चिमदेशे च मध्यग्रहे स्फुटगृहे वा क्रमशो हीनं धनं कार्यं तदा स्वदेशीयग्रहो भवति । एवं यदि स्पष्टभू परियोजनैः षष्टिघटिका लभ्यन्ते तदा देशान्तरयोजनैः किमित्यनुपातेन यद् घट्या- त्मकं फलमगच्छति तत्पूर्वपश्चिमदेशवशेन ग्रहवत्तथावृणघनं कार्यमिति, ब्रह्मगुप्तेनात्र स्फुटभूपरिधेश्वचं न क्रियते, मध्यमभूपरिधिसम्बन्धेनैव देशान्तरघट्यानयनं कृतमतो न समीचीनमिति विवेचनीयं विनैरिति ॥३७३८-३६॥ अब देशान्तर कहते हैं। हि. भा.-भूपरिधि ५००० पांच हजार है, इसको स्वदेश और रेखदेश के अक्षांशान्तर से गुणा कर भगणांश ( ३६० ) से भाग देने से जो फल हो उसके वर्ग को देशान्तर (खादेश और स्वदेश के योजनात्मक अन्तर) वर्ग में घटाकर जो शेष रहे उसके मूल से ग्रहगति को गुणकर भूपरिधि ( स्पष्टभूपरिधि ) से भाग देने से जो कलात्मक फल हो उसको उज्जयिनीयाम्योत्तररेखा से पूर्वदेश में मध्यमग्रह में या स्फुटंग्रह में ऋण करना, पश्चिमदेश में घन करना चाहिये, पद याने मूल ( देशान्तर योजन ) को साठ से गुणा कर भूपरिबि ( स्पष्टभूपरिवि ) से भाग देने से जो घट्यात्मक फल हो उसको पूर्वी और पश्चिम देश में प्रग्रहवव तिथि में ( तिथिमुक्त घटी ) संस्कार करना चाहिये ।।३७-३८-३६॥ उपपत्ति यदि व्यासमान=१५८१ मानते हैं तब व्यासवर्गाद्दशगुणात्पदं भूपरिधिर्भावेव इस सूर्यसिद्धान्तोक्त प्रकार से परिघिमान=५ १००० आता है, यही ब्रह्मगुप्तमत में भूपरिधिमान है । संस्कृतोपपत्ति में जो क्षेत्र लिखा हुआ है, वही यहां देखना चाहिये । = क्षु-ख-ल-धु=स्वयाम्योत्तरवृत है, ध्र , प्र , दोनों भुव हैं । ख=स्वखस्वस्तिक है, नि=स्वनिरक्ष स्वस्तिक है, घु-रे श्री , लंकायाम्योत्तरवृत्त में रे कई रेखादेश है, । नि-स-नि=नाडीवृत्त है, रे-ल-नाडीवृत्त के समानान्तर लघुवृत्त है, ल-नि== रेखादशाक्षांश
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